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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 255 को व्यवसायात्मक एवं निश्चयात्मक कहा गया है। चरक में वादमार्ग पदों में एक स्वतंत्र व्यवसाय पद है। “अथ व्यवसाय:- व्यवसायो नाम निश्चयः13 सिद्धसेन से लेकर सभी जैन तार्किकों ने प्रमाण को स्वपर व्यवसायि माना है। वार्तिककार शान्त्याचार्य ने न्यायावतारगत अवभास शब्द का अर्थ करते हुए कहा है, कि “अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहण मात्रकम् 14 अकलंकदेव आदि सभी तार्किकों ने प्रमाण लक्षण में व्यवसाय पद को स्थान दिया है और प्रमाण को व्यवसायात्मक" माना है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं है। न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक कहा है। सांख्याकारिका में भी प्रत्यक्ष को अध्यवसायरुप कहा है। इसी प्रकार जैन आगमों में भी प्रमाण को व्यवसाय शब्द से परिभाषित किया गया है। जैसा कि तत्वार्थसार में कहा है “सम्यग्ज्ञानं पुन: स्वार्थ व्यवसायात्मकं विदुः।"10 अर्थात् जो स्वपर का व्यवसायात्मक ज्ञान है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन उसी ज्ञान को प्रमाण मानता है, जो स्वयं को भी जाने और स्व से भिन्न पर पदार्थ को भी जाने। न केवल जाने अपितु निश्चयात्मक और यथार्थ रुप में जाने । प्रमाण की उपयोगिता यह है, कि वह उपादेय, हेय और उपेक्षणिय ठीक-ठीक ढंग से जानें। हेय-उपादेय एवं उपेक्षणिय का यह विवेक तभी संभव है, जब उसे ज्ञान रुप माना जाये। यदि प्रमाण को ज्ञानरुप मानकर अज्ञानरुप माना जाएगा, तो वह हेयउपादेय का सम्यक् विवेक नहीं कर सकेगा और उस दशा में प्रमाण की कोई सार्थ कता या उपयोगिता तभी है, जब वह हेय-उपादेय का विवेक और स्व-पर का सम्यक् परिज्ञान कर सके । जैसा कि आचार्य सिद्धसेन ने प्रमाण का लक्षण बताया है "प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्।'' अर्थात् स्व और पर को प्रकाशित करने वाला अबाधित ज्ञान प्रमाण है। प्रमाण-चतुष्टय सिद्धि : प्रमाण के लक्षण में कहा गया है, कि वह स्व-पर को जानने वाला होता है। स्व का अर्थ है ज्ञान और पर का अर्थ है- पदार्थ । जो ज्ञान अपने स्वयं को और घट-पटादि पदार्थ को जानता है, प्रमाण है। जैसा कि वादिदेव सूरि प्रमाण का स्वरुप बताते हैं “स्व पर व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्॥1 अर्थात् स्व और पर को निश्चित रुप से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। जैनाचार्यों ने प्रमाण के लक्षण में स्व-पर शब्द का उल्लेख विशेष प्रयोजन को लेकर किया है। वह प्रयोजन है- शून्यवादी बौद्धों और ज्ञानाद्वैतवादी वेदान्त दर्शन की मान्यताओं को निरस्त करना।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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