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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 253 जैन दर्शन में इसका समाधान इस प्रकार किया है, कि पदार्थ अपने-अपने रुप में है, वे संकर नहीं बनते। अनन्त पदार्थ हैं और ज्ञान के पर्याय भी अनन्त हैं। अनन्त के द्वारा अनन्त का ग्रहण होता है, यह सांकर्य नहीं है।' भाषा में एक साथ एक ही ज्ञेय के निरुपण की क्षमता है। उसके द्वारा अनेक ज्ञेय के निरुपण की मान्यता को संकर कहा जा सकता है, किन्तु ज्ञान की स्थिति उससे सर्वथा भिन्न है। इसलिए ज्ञान की अनन्त पर्यायों के द्वारा अनन्त ज्ञेयों को जानने में कोई बाधा नहीं आती। विषय के स्थूल रुप या वर्तमान पर्याय का ज्ञान हमें इन्द्रियों से मिलता है, उसके सूक्ष्म रुप या भूत और भावी पर्यायों की जानकारी मन से मिलती है। इन्द्रियों में कल्पना, संकलन और निष्कर्ष का ज्ञान नहीं होता। मन दो या उनसे अधिक बोधों को मिलाकर कल्पना कर सकता है। अनेक अनुभवों को जोड़ सकता है और उनके निष्कर्ष निकाल सकता है। इसलिए यह सत्य नहीं है, कि ज्ञान विषय से उत्पन्न होता है या उसके आकार का ही होता है। इन्द्रिय का ज्ञान बाहरी विषय से ही प्राप्त होता है और उसके बिना भी। ज्ञान और ज्ञेय का विषय-विषयी भाव संबंध है। जैन मतानुसार1. ज्ञान अर्थ में प्रविष्ट नहीं होता, अर्थ ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होता। 2. ज्ञान अर्थाकार नहीं है। 3. अर्थ से उत्पन्न नहीं है। 4. अर्थ रुप नहीं है- तात्पर्य यह है, कि इनमें पूर्ण अभेद नहीं है। प्रमाता ज्ञान-स्वभाव होता है, इसलिए वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय-स्वभाव होता है, इसलिए वह विषय है। दोनों स्वतंत्र हैं, फिर भी ज्ञान में अर्थ को जानने की और अर्थ में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की क्षमता है। वही दोनों के कथंचित अभेद का हेतु है। ज्ञान के भेद- ज्ञान दो प्रकार का होता है1. यथार्थ ज्ञान या प्रमाण एवं 2. अयथार्थ ज्ञान या समारोप। सम्यक् निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है। जिस ज्ञान में संशय, विपर्यास, अनध्यवसाय न हो, वह ज्ञान दार्शनिक दृष्टिकोण से यथार्थ ज्ञान माना जाता है। इसके विपरीत जो ज्ञान संशय, विपर्यय आदि समारोपों से युक्त हो, सर्प को रस्सी समझने के समान विपरीत बोध रुप है या अनिर्णायक हो उसे दार्शनिक दृष्टि से अयथार्थ ज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान कहते हैं। प्रमाण : यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध है। ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य। वस्तु का संशय आदि से रहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह प्रमाण है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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