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________________ 252 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन घटक अचेतन रुप हैं, वे ज्ञाता नहीं हो सकते, वे ज्ञेय है, प्रमेय है। प्रमाता जिस साधन से प्रमेय को जानता है, वह प्रमाण है। प्रमाता ने ज्ञान रुप प्रमाण द्वारा प्रमेय का शास्त्र में प्रमाण पर बहुत विस्तृत और व्यापक विचार किया है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, चार्वाक और जैन आदि सभी दर्शनों ने अपने-अपने ढंग से प्रमाण पर अलग-अलग चिन्तन प्रस्तुत किया है। जैन तत्वज्ञान में प्रमाण के विषय में विपुल साहित्य की रचना हुई है। जैनाचार्यों का प्रमाण की मीमांसा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ज्ञान की उत्पत्ति : ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय के परस्पर संयोग से प्रकाशित होता है। ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतंत्र हैं। ज्ञेय है- द्रव्य, गुण और पर्याय। ज्ञान आत्मा का गुण है। न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय। हम जाने या न जाने फिर भी पदार्थ अपने रुप में अवस्थित हैं। यदि वे हमारे ज्ञान की ही उपज हों तो उनकी असत्ता में उन्हें जानने का हमारा प्रयत्न ही क्यों होगा? हम अदृष्ट वस्तु की कल्पना ही नहीं कर सकते। पदार्थ ज्ञान के विषय बने अथवा न बने, फिर भी हमारा ज्ञान हमारी आत्मा में अवस्थित है। यदि हमारा ज्ञान पदार्थ की उपज हो तो वह पदार्थ का ही धर्म होगा। हमारे साथ उसका तादात्म्य नहीं हो सकेगा। वस्तुस्थिति यह है, कि हम पदार्थ को जानते हैं, तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता वरन् वह उसका प्रयोग है, प्रकाश है। ज्ञान या जानने की क्षमता हममें विकसित रहती है। किंतु ज्ञान की आवृत्त दशा में हम पदार्थ को माध्यम के बिना जान नहीं सकते। हमारे शारीरिक इन्द्रिय और मन अचेतन हैं। इनसे पदार्थ का सम्बन्ध या सामिप्य होता है, तब वे हमारे ज्ञान को प्रवृत्त करते हैं और ज्ञेय जान लिए जाते हैं। जैसे- मित्र को देखकर प्रेम उमड़ आया- यह प्रेम की उत्पत्ति नहीं , उसकी प्रवृत्ति है। यही स्थिति ज्ञान की है। विषय के सामने आने पर वह उसे ग्रहण कर लेता है। यह प्रवृत्ति मात्र है। जितनी ज्ञान की क्षमता होती है, उसके अनुसार ही वह जानने में सक्षम होता है। हमारा ज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही ज्ञेय को जानता है। इन्द्रियों की शक्ति सीमित है। वे अपने-अपने विषयों को मन के साथ सम्बन्ध स्थापित करके ही जान सकती हैं। मन का सम्बन्ध एक साथ एक ही इन्द्रिय से होता है। इसीलिए एक काल में एक पदार्थ के एक ही पर्याय(रुप) को जाना जा सकता है। इसलिए ज्ञान को ज्ञेयाकार मानने की भी आवश्यकता नहीं होती। यह सीमा आवृत ज्ञान के लिए है। अनावृत ज्ञान से एक साथ सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं। सहज तर्क होगा, कि एक साथ सभी को जानने का तात्पर्य है, किसी को भी नहीं जानना। जिसे जानना है, उसे ही न जाना जाए और सबके सब जाने जाएँ तो व्यवहार कैसे चलेगा? ये ज्ञान का सांकर्य है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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