SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 242 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन के निरुपण क्रम को स्याद्वाद का विकास क्रम समझ लिया है। एक भूल अनेक भूलों की सृष्टि कर देती है। जब उन्होंने स्याद्वाद के विकास क्रम की भ्रान्त कल्पना की तो दूसरी भूल यह हो गई, कि वे सप्तभंगी को बौद्धों के चतुष्कोटि निषेध का अनुकरण अथवा विकास समझने लगे, यद्यपि उन दोनों में बहुत अधिक अन्तर है। सर्वप्रथम तो इतिहास द्वारा प्रमाणित इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिये, कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन है। महात्मा बुद्ध से पूर्व तेइस तीर्थंकर हो चुके थे। तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ उनसे लगभग 250 वर्ष पूर्व हुए थे। उन्होंने स्यादवाद सिद्धान्त का निरुपण किया था। संजय बेलट्ठिपुत्त जो बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने स्यादवाद को ठीक तरह न समझकर संशयवाद की प्ररूपणा की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि स्यावाद सिद्धान्त का बुद्ध से पहले ही अस्तित्व था। ऐसी स्थिति में यह समझना, कि सप्तभंगी सिद्धान्त बौद्धों के चतुष्कोटि प्रतिषेध का विकसित रूपान्तर है, निराधार है। चतुष्कोटि प्रतिषेध का सिद्धान्त तो बुद्ध के भी बाद में प्रचलित हुआ है। इसके अतिरिक्त सप्तभंगी और चतुष्कोटि प्रतिषेध के आशय में बहुत अन्तर है। बौद्धों का चतुष्कोटि प्रतिषेध इस प्रकार हैं - 1. वस्तु है, ऐसा नहीं है। 2. वस्तु नहीं है, ऐसा भी नहीं है। 3. वस्तु है और नहीं है, ऐसा भी नहीं है। 4. वस्तु है और नहीं है, ऐसा नहीं है, यह भी नहीं है। सप्तभंगी के स्वरूप का विवेचन पहले किया जा चुका है। सप्तभंगी में और प्रस्तुत चतुष्कोटि प्रतिषेध में वस्तुतः कोई समानता नहीं है। सप्तभंगी में वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व आदि का प्रतिपादन है, जबकि इस प्रतिषेध में अस्तित्व को कोई स्थान नहीं है, केवल नास्तित्व का ही निरुपण पाया जाता है। सप्त भंगी में जो अस्तित्व और नास्तित्व का विधान है, वह स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के आधार पर है और क्षण-क्षण में होने वाला हमारा अनुभव उसका समर्थन करता है। सप्तभंगी के अनुसार मनुष्य-मनुष्य है, पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर नहीं है। किन्तु चतुष्कोटि प्रतिषेध का कहना है, कि मनुष्य मनुष्य नहीं है, मनुष्येतर भी नहीं है, उभयरूप भी नहीं है और अनुभय रूप भी नहीं है। वह कुछ भी नहीं है और वह कुछ भी नहीं है, ऐसा भी नहीं है। इस प्रकार यहाँ न कोई अपेक्षाभेद है और न अस्तित्व का कोई स्थान ही है। सप्तभंगी में पदार्थों के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया गया है, सिर्फ उसके स्वरूप को नियतता प्रदर्शित करने के लिए यह दिखलाया गया है, कि वह पररूप में नहीं है। सप्तभंगी हमें सतरंगी पुष्पों से सुशोभित विचार वाटिका में विहार कराता है, तो बौद्धों का निषेधवाद पदार्थों के अस्तीत्व को अस्वीकार करके शून्य के घोर एकान्त अन्धकार में ले जाता है। अनुभव उसको कोई आधार प्रदान नहीं करता है। अतएव
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy