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________________ 198 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन 3. अरति, 4. भय, 5. शोक, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रिवेद, 8. पुरुषवेद व 9. नपुंसकवेद। इस प्रकार चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों में से संज्वलन कषाय चतुष्क और नो कषाय ये अघाती हैं और शेष बारह प्रकृति सर्वघाती हैं। मोहनीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूत की है और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागर की है। 5. आयुष कर्म : जीवों के जीवन अवधि का नियामक कर्म आयुष्य कर्म है। इस कर्म के अस्तीत्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु का आलिंगन करता है। आयुष्य कर्म का कार्य सुख-दःख देना नहीं है, अपितु नियत अवधि तक किसी एक भव में जीव को रोके रखना है। आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं - 1. नरकायु, 2. तिर्यंञ्चायु, 3. मनुष्यायु, 4. देवायु।" आयु दो रूपों में उपलब्ध होती है अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय। बाह्य निमित्तों से आयु का कम होना अपवर्तन है। लेकिन आयु कम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं, कि आयु कर्म का कुछ भाग बिना भोगे ही नष्ट हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है, कि आयु कर्म के जो प्रदेश धीरे-धीरे बहुत समय में भोगे जाने वाले थे, वे सब अल्पकाल में अन्तमुहूर्त में ही भोग लिए जाते हैं। लोक व्यवहार में इसी को अकाल मृत्यु कहते हैं। आयुकर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। भगवती सूत्र में उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग उपरान्त तेतीस सागरोपम वर्ष कही है। 6. नाम कर्म : जिस कर्म से जीव गति आदि पर्यायों के अनुभव करने के लिए बाध्य हो, वह नाम कर्म है। अर्थात् जिस कर्म से जीव में गति आदि भेद उत्पन्न हो, देहादि की भिन्नता का कारण हो अथवा जिससे गत्यन्तर जैसे परिणमन हों, वह नाम कर्म है। यह कर्म शरीर, अंगोपांग, इन्द्रिय, आकृति, शरीर गठन, यश, अपयश आदि का निर्माता है। नामकर्म के भी मुख्य दो भेद हैं - शुभ और अशुभ।'' अशुभ नाम पाप रूप है तथा शुभनाम पुण्य रूप हैं। नामकर्म की मध्यम रूप से बयालीस उत्तर प्रकृतियाँ भी होती हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. गति नाम : जन्म सम्बन्धी विविधता का निमित्त कर्म । इसके चार उपभेद हैं- (i) नरक गतिनाम, (ii) तिर्यंञ्च गतिनाम, (iii) मनुष्य गतिनाम, (iv) देवगतिनाम। 2. जातिनाम : एकेन्द्रिय से लेकर पंचेद्रियत्व तक का अनुभव कराने वाला कर्म। इसके पाँच भेद हैं - (i) एकेन्द्रिय जातिनाम, (ii) द्विन्द्रिय जातिनाम, (iii) त्रिन्द्रिय जातिनाम, (iv) चतुरिन्द्रिय जातिनाम, (v)
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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