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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त 197 मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है - 1. दर्शन मोहनीय और 2. चारित्र मोहनीय।” यहाँ दर्शन का अर्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप आत्म गुण है। जैसे मदिरापान से बुद्धि मूर्च्छित हो जाती है वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक लुप्त हो जाता है। वह धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानता है । दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का है 1. सम्यक्त्व मोहनीय - जो कर्म सम्यक्त्व का प्रकट होना तो नहीं रोक सकता, लेकिन औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं होने देता। 2. मिथ्यात्व मोहनीय - जो कर्म तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है 1 3. मिश्र मोहनीय- जो कर्म तत्त्व श्रद्धा में असमंजस की स्थिति उत्पन्न करता है। इनमें मिथ्यात्व मोहनीय सर्वघाती है और शेष दो देशघाती हैं। मोहनीय कर्म का द्वितीय भेद चारित्र मोहनीय है । यह कर्म आत्मा के चारित्रगुण को उत्पन्न नहीं होने देता है।” चारित्र मोहनीय के भी दो भेद हैं 1. कषाय मोहनीय, 2. नोकषाय मोहनीय। कषाय मोहनीय के 16 भेद हैं और नो कषाय मोहनीय के सात अथवा नौ भेद हैं। " 101 कषाय मोहनीय : कषाय शब्द कष और आय से बना है। कष- संसार, आय-लाभ, जिससे संसार अर्थात् भव भ्रमण की अभिवृद्धि हो वह कषाय है । क्रोध, मान, माया व लोभ के रूप में वह चार प्रकार का है। ये चार भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये चार-चार प्रकार के हैं। इस प्रकार कषाय मोहनीय के सोलह भेद हैं । इसके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं। अनन्तानुबंधी चतुष्क के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार भ्रमण करता है। यह कषाय सम्यक्त्व का विघातक है । अप्रत्याख्यानी चतुष्क के प्रभाव से देशविरति रूप श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । प्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क के उदय से सर्वविरति रूप श्रमण धर्म की प्राप्ति नहीं होती। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं कर सकता। 2 102 अनन्तानुबन्धी चतुष्क की स्थिति यावज्जीवन की, अप्रत्याख्यानी चतुष्क की चार माह की और संज्वलन कषाय की स्थिति एक पक्ष की है 103 जिन का उदय कषायों के साथ होता है या जो कषायों को उत्तेजित करते हैं, वे नो कषाय है। इन्हें अकषाय भी कहते हैं । नो कषाय या अकषाय का तात्पर्य कषाय का अभाव नहीं, वरन् ईषत् कषाय है। नौ कषाय के नो भेद हैं। 1. हास्य, 2. रति, -
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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