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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 193 किया है। कर्म का कार्य : कर्म का मुख्य कार्य है - आत्मा को संसार में आबद्ध रखना। जब तक.कर्मबंध की परम्परा का प्रवाह प्रवाहमान रहता है, तब तक आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। यह कर्म का सामान्य कर्म है। विशेष रूप से देखा जाए तो भिन्न-भिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं, जितने कर्म हैं, उतने ही कार्य हैं। जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं - 1. ज्ञानावरण कर्म, 2. दर्शनावरण कर्म, 3. वेदनीय कर्म, 4. मोहनीय कर्म, 5. आयुकर्म, 6. नाम कर्म, 7. गोत्र कर्म व 8. अन्तराय कर्म। इन आठ कर्म प्रकृतियों के भी दो अवान्तर भेद हैं। इनमें चार घाती कर्म है और चार अघाती कर्म हैं। 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. मोहनीय और 4. अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं। 1. वेदनीय, 2. आयु, 3. नाम और 4. गोत्र ये चार अघाती कर्म __जो कर्म आत्मा से बंधकर उसके स्वरूप का या उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं, वे घाती कर्म हैं। इनकी अनुभाग शक्ति का सीधा प्रभाव आत्मा के ज्ञान आदि गुणों पर होता है। इनसे गुण विकास अवरुद्ध होता है, जैसे बादल सहस्र रश्मि सूर्य के चमचमाते प्रकाश को आच्छादित कर देता है, उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता वैसे ही घाती कर्म आत्मा के मुख्य गुण 1. अनन्त ज्ञान, 2. अनन्त दर्शन, 3. अनन्त सुख, 4. अनन्त वीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता।' दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के अनन्त दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। ज्ञानावरणीय कर्म जीव की अनन्त ज्ञान शक्ति को प्रकट नहीं होने देता। मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् चारित्र गुण का अवरोध करता है, जिससे आत्मा को अनन्त सुख प्राप्त नहीं होता। अन्तराय कर्म आत्मा की अनन्तवीर्य शक्ति आदि का प्रतिघात करता है, जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घाती कर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं। जो कर्म आत्मा के जिन गुण का घात नहीं करते वरन् केवल आत्मा के प्रति जीवी गुणों का घात करते हैं, वे अघाती कर्म हैं। अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है, इनकी अनुभाग शक्ति जीव के गुणों पर सीधा प्रभाव डालती है। अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से संबंध जुड़ता है। जिससे आत्मा 'अमूर्तोपि मूर्त इव' रहती है। उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है। जो आत्मा के गुण 1. अव्याबाधसुख, 2. अटल अवगाहना, 3. अमूर्तिकत्व तथा अगुरुलघुत्व भाव को प्रकट नहीं होने देते हैं। नाम कर्म आत्मा की अरुपी अवस्था को आवृत करता है। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को आच्छन्न
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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