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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त 185 यदि कर्मों से पहले आत्मा को मानें तो फिर उसके कर्म लगने का कोई कारण नहीं बनता । कर्मों को भी आत्मा से पहले नहीं मान सकते, क्योंकि वे कर्त्ता के बिना हो नहीं सकते। आत्मा के बिना उनका किया जाना सर्वथा असंभव है । इन दोनों का एक साथ उत्पन्न होना भी अयोक्तिक है । पहले तो इन्हें उत्पन्न करने वाला ही नहीं । दूसरे में कल्पना करें, कि यदि ईश्वर को इनका उत्पादक मान लें, तो भी यह समस्या नहीं सुलझती । प्रत्युत इतनी विकट समस्याएँ हमारे समक्ष आ खड़ी होती हैं, कि उनका हल नहीं निकाला जा सकता । सत् से असत् और असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । ईश्वर ने सत् का रूपान्तरण भी क्यों किया एवं क्या से क्या किया? पहले क्या था, बाद में क्या किया? इसका कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं निकला । अतः इनका अनादि अपश्चानुपूर्वी सम्बन्ध ही संगत एवं युक्तियुक्त है। यहाँ इसी प्रकार का एक प्रश्न और उठता है, कि आत्मा और कर्म इन दोनों में अधिक शक्ति सम्पन्न कौन है? समाधान है - आत्मा भी बलवान है और कर्म भी बलवान है। आत्मा में भी अनन्त शक्ति है और कर्म में भी अनन्त शक्ति है । इनकी स्थिति शतरंज के खेल के समान है। कभी जीव काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड़ देता है और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है। कर्म बाह्य दृष्टि से बलवान प्रतीत होते हैं, किंतु अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान है, क्योंकि कर्म का कर्त्ता आत्मा है, वह मकड़ी की तरह कर्मों का जाल बिछाकर स्वयं उसमें उलझता है । यह आत्मा की ही विभाव परिणति है । कर्म पुद्गल स्वयं कुछ नहीं कर सकते। जब तक आत्मा राग-द्वेषादि रूप से विभाव परिणमन न करे तो कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ नहीं चिपकते । कर्म चाहे कितने भी शक्तिशाली हों, कैसी भी बाह्य वस्तुओं एवं परिस्थितियों का संयोग हो, लेकिन जब तक आत्मा में चंचलता नहीं हो, विभाव परिणमन न हो, तो उसे बांध नहीं सकते। अतः आत्मा अधिक शक्ति सम्पन्न है । वह चाहे तो बंधे हुए कर्मों को काट भी सकता है और नवीन कर्मों के आगमन को रोक भी सकता है। जैसे लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर है, फिर भी तरल पानी पत्थर के भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है। कठोर विशाल चट्टानों में भी छेद कर देता है । वैसे ही आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है । आत्मा को जब तक अपनी विराट चेतना शक्ति का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान समझकर उनसे दबा रहता है। ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है । इस सम्बन्ध में पंचाध्यायी में कहा गया है - 'जीव और कर्म दोनों पृथक्पृथक् हैं, इन दोनों को परस्पर बन्धनबद्ध करने वाली चुम्बक पत्थर द्वारा आकर्षित हो
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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