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________________ 184* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कर्म भी पौद्गलिक और मूर्त ही होना चाहिए। भगवान महावीर ने तो कर्म की परिभाषा ही इस प्रकार दी है, “आत्म प्रवृत्याकृष्टा स्तत् प्रायोग्य पुद्गलाः कर्म"2 अर्थात् आत्म परिणामों से व योगों की प्रवृत्ति से आकृष्ट आत्म सम्बद्ध पुद्गल समूह ही कर्म है। अतः स्पष्ट है, कि कर्म पौद्गलिक हैं। मूर्त और अमूर्त का संबंध कैसे : आत्मा और कर्म दोनों अनादि हैं। कर्म संतति का आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध है। यद्यपि कर्म मूर्त और जड़ता स्वभाव वाला है, आत्मा अमूर्त और चैतन्य स्वभावी है। फिर भी अनादि काल से इनका सम्बन्ध चला आ रहा है, जैसे स्वर्ण और मिट्टी का, तिल और तेल का तथा अरणी और आग का सम्बन्ध अनादिकालीन है। इनकी कोई आदि नहीं है, वैसे ही जीव के साथ परम्परा स्वरूप कर्मों के संबंध की भी कोई आदि नहीं है। प्रतिपल प्रतिक्षण संसारी जीव नवीन कर्म बाँधता रहता है। ये जितने कर्म-पुद्गल आत्मा से चिपकते हैं, वे सब अवधि सहित होते हैं। कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता। सारांश यह है, कि आत्मा से कर्मों का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि और भिन्न-भिन्न व्यक्ति रूप से सादि है। तर्क शास्त्र का यह एक नियम है, कि जो अनादि होता है उसका कभी अन्त नहीं होता। यह हम जानते हैं, कि आत्माएं अनादिकालीन कर्मबन्धन तोड़कर मुक्त होती है। यहाँ प्रश्न यह उठता है, कि अनादि सम्बन्ध का अन्त कैसे होता है? इसका समाधान इन शब्दों में ही हो चुका है, कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि है, न कि व्यक्तिशः। अतः अनादिकालीन कर्मों का अन्त होता है। तप और संयम के द्वारा नये कर्मों का प्रवाह रुकता है, संचित कर्म नष्ट होते हैं और आत्मा मुक्त बन जाता है। अचेतन एवं रूपी कर्म पुद्गल चेतन एवं अरूपी आत्मा से कैसे संबंध करते हैं? इसका उत्तर है, कि मदिरा और क्लोरोफार्म का प्रभाव अमूर्त चेतना आदि गुणों पर प्रत्यक्ष देखा जाता है, वैसे ही अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है।" इसका दूसरा समाधान यह है, कि अनन्तकाल से आत्मा कर्म से सम्बद्ध होने के कारण स्वभावतः अमूर्त होते हुए भी संसारी अवस्था में मूर्त भी मानी जाती है।" कर्म का सम्बन्ध इस कोटि की आत्माओं से ही होता है। जो आत्माएँ सर्वथा कर्ममुक्त हो जाती है, उनसे फिर कर्म सम्बद्ध नहीं हो सकते। पूर्वकर्म से बंधा हुआ जीव ही नये कर्मों का बंधन करता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है, कि आत्मा के पहले-पहल कर्म कैसे लगे? किन्तु जब हम आत्मा और कर्म की पहल निकाल ही नहीं सकते क्योंकि उनका प्रारम्भ है ही नहीं तब उनका श्रीगणेश कैसे बताएँ? इसका समाधान यही है, कि आत्मा और कर्म का संबंध अपश्चानुपूर्वी है। अर्थात वह सम्बन्ध न तो पीछे है, न पहले।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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