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________________ सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 165 दर्शन दोनों ही गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा ही आज तक जीवित है। लेखन कला यद्यपि बहुत प्राचीन काल से विकसित थी, फिर भी धार्मिक क्षेत्र में ज्ञान की पवित्रता एवं पात्रता के अनुरूप प्रदत्तता की विधा के प्रचलन के कारण लेखन पर बल नहीं दिया गया। गुरु अपने योग्य पात्रता रखने वाले शिष्य को अपना संपूर्ण ज्ञान मौखिक वाचना के रूप में प्रदान करता था। गुरु अपने स्वानुभूत ज्ञान को सूत्र रूप से शिष्यों को कण्ठस्थ कराता था तथा यही क्रम परम्परा से निरंतर चलता रहा। एक अति दीर्घकाल तक यही मौखिक ज्ञान प्रदान करने की पद्धति द्वारा ज्ञान की परम्परा जीवित रही। उसी परम्परा के कारण कुछ अद्वितीय ज्ञान काल के गर्भ में ही समा गया। अतः बाद में धर्म-दर्शन के क्षेत्र में लेखन का प्रयोग करके बचे हुए ज्ञान को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया। __भारत में मुख्य रूप से दो सांस्कृतिक परम्पराओं का ही विकास हुआ। एक श्रमण परम्परा तथा दूसरी ब्राह्मण परम्परा । ब्राह्मण परम्परा के अन्तर्गत ब्राह्मण जाति के वर्ग तक ही ज्ञान की सीमा थी। ब्राह्मण वर्ग के लोग ही धर्म के अधिकारी होते थे तथा प्रत्येक ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण धर्म के मुख्य शास्त्र वेदों का अध्ययन आवश्यक था। यहाँ तक कि अध्ययन-अध्यापन ही उनकी जीविका का साधन भी होता था। चूँकि वैदिक धर्म में धर्म एक जीविका का साधन बन गया था। अतः ब्राह्मणों का संपूर्ण वर्ग वैदिक धर्म की सुरक्षा का प्रहरी बन गया था। वैदिक धर्म गुरु-शिष्य परम्परा के साथ-साथ पिता-पुत्र विरासत रूप से भी सुरक्षित रहा। क्योंकि पिता अपने पुत्र को संपूर्ण वेदों का ज्ञान कण्ठस्थ कराता था, ताकि वह क्षत्रियों एवं वेश्यों का धार्मिक मार्गदर्शन करके अपनी आजीविका चला सके। इस प्रकार धर्म के लिए अलग से एक जाति समुदाय को अधिकृत करने से गुरु-शिष्य परम्परा की अपेक्षा भी पितापुत्र विरासत की परम्परा से वैदिक ज्ञान अधिक सुरक्षित रह पाया। यद्यपि लेखन विद्या का प्रयोग ब्राह्मणों ने भी बहुत बाद में किया। अतः संभव है, कि स्मरण शक्ति के आधार पर और मानव की समझने की सीमाओं के अनुसार वैदिक ज्ञान के मौलिक स्वरूप में कुछ परिवर्तन हो गया हो, फिर भी वैदिक दर्शन अपनी प्राचीनता के साथ काफी विशद् रूप में सुरक्षित रूप से विद्यमान है। श्रमण परम्परा में मुख्य रूप से जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन का उल्लेख आता है। बौद्ध दर्शन काफी अर्वाचीन है। यह भगवान महावीर के समकालीन हुए भगवान बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित है तथा इस वक्त तक लेखन प्रणाली काफी प्रचलित हो गई थी। अतः बौद्ध दर्शन अपने मौलिक रूप में लिखित रूप से उपलब्ध हो जाता है। यद्यपि दो-तीन पीढ़ियों तक तो बौद्ध दर्शन भी केवल गुरु-शिष्य परम्परा से ही जीवित रहा। चूँकि श्रमण परम्परा में कोई जातिय वर्ग न होकर एक दीक्षित समुदाय होता है, अतः ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा से ही प्रदान किया जाता है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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