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________________ 164* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन स्तूप कदाचित् मध्यकाल के प्रारंभ तक विद्यमान रहा। किन्तु, गुप्त काल की समाप्ति के समय तक जैनों की रुचि स्तूप के निर्माण में नहीं रह गई। एक बार और जैसा, कि लाँग हर्ट का कहना है - 'स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव का यथोचित महत्त्व समझते हुए हिन्दूओं की अपेक्षा जैनों ने अपने मन्दिरों के निर्माण के लिए सदैव प्राकृतिक स्थान को ही चुना। उन्होंने जिन अन्य ललित कलाओं का उत्साह पूर्वक सृजन किया, उनमें सुलेखन, अलंकरण, लघुचित्र और भित्ति चित्र, संगीत और नृत्य है। उन्होंने सैद्धान्तिक पक्ष का भी ध्यान रखा और कला, स्थापत्य, संगीत एवं छंदशास्त्र पर मूल्यवान ग्रंथों की रचना की। कहने की आवश्यकता नहीं, कि जैन कला और स्थापत्य में जैन धर्म और जैन संस्कृति के सैद्धांतिक और भावनात्मक आदर्श अत्यधिक प्रतिफलित हुए हैं, जैसा कि होना भी चाहिये। तीर्थंकरों एवं आचार्यों की गुरु-शिष्य परम्परा : शिक्षा के प्रचार-प्रसार एवं पल्लवन विकास में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। अनादिकाल से वर्तमान तक शिक्षा, धर्म-दर्शन, विज्ञान एवं अन्य जितना भी सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का विविध आयामी विकास हुआ है, इस संपूर्ण विकास के पीछे गुरु-शिष्य परम्परा का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रत्येक दार्शनिक या संत ने अपने अनुभव अथवा ज्ञान को अपने शिष्यों को दिया। वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों को दुनिया को बताया तो आने वाले विज्ञान के विद्यार्थियों ने उससे आगे शोध किया। इसी प्रकार राजाओं, अर्थशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों ने समय समय पर परिस्थितिनुरूप राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थाओं को समाज में कायम किया और आगे आने वाले व्यक्तियों ने परिस्थितिनुरूप उनमें परिवर्तन किए, विकास किया। इस प्रकार जगत के सम्पूर्ण विकास में किसी न किसी रूप में गुरु-शिष्य परम्परा का योगदान रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में यह परम्परा अधिक स्पष्ट रूप में जीवंत रही है। कई धर्म-दर्शन अपने प्रारंभिक जन्म से आज तक सिर्फ इसी परम्परा के माध्यम से जीवित है। विश्व के समस्त धर्म-दर्शनों का अस्तीत्व इसी परम्परा के आधार पर कायम है। पाश्चात्य देशों में दार्शनिकों द्वारा अपने विचारों के लेखन की परम्परा प्रचलित थी। अतः वहाँ ज्ञान के एक स्तर को जीवित रखने के लिए इस परम्परा का इतना महत्त्व नहीं रहा, वरन् शिष्य अपने गुरु की अपेक्षा विकसित विचार भी प्रस्तुत कर सकता था। वहाँ दर्शन मानसिक चिन्तन की परिणति थी, आत्मिक जागृति का परिणाम नहीं था। तथापि धार्मिक आचारों के सन्दर्भ में वहाँ भी गुरु-शिष्य परम्परा ने अपना वर्चस्व बनाए रखा है। भारतीय परिवेश में धर्म दर्शन एक दूसरे से सम्बद्ध होने के कारण धर्म तथा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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