SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन विशुद्ध सौंदर्य को उभारने वाले तत्त्वों का अभाव है। उदाहरणार्थ - मानसार आदि ग्रन्थों में ऐसी सूक्ष्म व्याख्याएँ मिलती हैं, जिनमें मर्ति, शिल्प और भवन-निर्माण की एक रूढ़ पद्धति दीख पड़ती है और कलाकार से उसी का कठोरता से पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। किन्तु, यही बात बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों की कला में भी विद्यमान है, यदि कोई अन्तर है, तो वह श्रेणी का है। जैन मूर्तियों में जिनों या तीर्थंकरों की मूर्तियाँ निस्संदेह सर्वाधिक है और इस कारण यह आलोचना तर्क संगत लगती है, कि उनके प्रायः एक जैसी होने के कारण कलाकार को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर कम मिल सका। पर इनमें भी अनेक मूर्तियाँ अद्वितीय बन पड़ी है, यथा कर्नाटक के श्रवणबेलगाला की विश्वविख्यात विशालाकार गोम्मट-प्रतिमा, जिसके विषय में हैनरिस जिम्मर ने लिखा है, “वह आकार-प्रकार में मानवीय है, किन्तु हिमखण्ड के सदृश मानवोत्तर भी, तभी तो वह जन्म-मरण के चक्र, शारीरिक चिंताओं, व्यक्तिगत नियति, वासनाओं, कष्टों और होनी-अनहोनी के सफल परित्याग की भावना को भली-भाँति चरितार्थ करती __ एक अन्य तीर्थंकर मूर्ति की प्रशंसा में वह कहता है, कि मुक्त पुरुष की मूर्ति न सजीव लगती है न निर्जीव वह तो अपूर्व अनन्त शान्ति से ओतप्रोत लगती है। एक अन्य दृष्टा कायोत्सर्ग तीर्थंकर मूर्ति के विषय में कहता है, कि अपराजित बल और अक्षय शक्ति मानो जीवंत हो उठे हैं, वह शालवृक्ष (शाल-प्रांशु) की भाँति उन्नत और विशाल है। अन्य प्रशंसकों के शब्द हैं 'विशालकाय शांति', 'सहज भव्यता' या परिपूर्ण काय निरोध की सूचक कायोत्सर्ग मुद्रा जिससे ऐसे महापुरुष का संकेत मिलता है, जो अनन्त, अद्वितीय केवलज्ञान गम्य सुख का अनुभव करता है और ऐसे अनुभव से वह उसी प्रकार अविचलित रहता है, जिस प्रकार वायु-विहीन स्थान में अचंचल दीप-शिखा। इससे ज्ञात होता है, कि तीर्थंकर मूर्तियाँ उन विजेताओं की प्रतिबिम्ब हैं, जो जिम्मर के शब्दों में लोकाग्र में सर्वोच्च स्थान पर स्थिर हैं और क्योंकि वे रागभाव से अतीत है, अतः संभावना नहीं, कि उस सर्वोच्च और प्रकाशमय स्थान से स्खलित होकर उनका सहयोग मानवीय गतिविधियों के इस मेघाच्छन्न वातावरण में आ पड़ेगा। तीर्थ-सेतु के कर्ता विश्व की घटनाओं और जैविक समस्याओं से भी निर्लिप्त हैं, वे अतीन्द्रिय, निश्चल, सर्वज्ञ, निष्कर्म और शाश्वत शांत है। यह तो एक आदर्श है, जिसकी उपासना की जाये, प्राप्ति की जाये, यह कोई देवता नहीं, जिसे प्रसन्न किया जाये, तृप्त या संतुष्ट किया जाये। स्वभावतः इसी भावना से जैन कला और स्थापत्य की विषय-वस्तु ओत-प्रोत है। दूसरी ओर इन्द्र और इन्द्राणी, तीर्थंकरों के अनुचर यक्ष और यक्षी, देवी सरस्वती, नवग्रह, क्षेत्रपाल और सामान्य भक्त नर-नारी, जैन देव-निकाय के
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy