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________________ सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव 161 दुःख और कष्टों से पूर्ण संसार को पार करने में मुमुक्षु के लिए सहायक होता है और निरंतर जन्म मरण के उस भ्रमण से मुक्त होने में भी सहायता देता है, जो इस सहायता के बिना कभी मिट नहीं सकता। यही कारण है, कि जैन तीर्थ यात्रा का वास्तविक उद्देश्य आत्मोत्कर्ष है। कदाचित इसीलिए जैनों ने अपने तीर्थक्षेत्रों के लिए जिन स्थानों को चुना वे पर्वतों की चोटियों पर या निर्जन घाटियों में हैं, जो जनपदों और भौतिकता से ग्रसित सांसारिक जीवन की आपाधापी से दूर, हरे-भरे प्राकृतिक दृश्यों तथा शांत मैदानों के मध्य स्थित है और जो एकाग्र ध्यान और आत्मिक चिंतन में सहायक एवं उत्प्रेरक होते हैं। ऐसे स्थान के निरंतर पुनीत संसर्ग से एक अतिरिक्त निर्मलता का संचार होता है और वातावरण आध्यात्मिकता, अलौकिकता, पवित्रता और लोकोत्तर शांति से पुनर्जीवित हो उठता है । वहाँ वस्तु स्मारकों (मंदिर व देवालयों) की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थंकर प्रतिमाएँ अपनी अनन्त शांति वीतरागता और एकाग्रता से भक्त तीर्थयात्री को स्वयं 'परमात्मत्व' के सन्निधान की अनुभूति करा देती है। आश्चर्य नहीं यदि वह पारमार्थिक भावातिरेक में फूट पड़ता है : " चला जा रहा तीर्थ क्षेत्र में अपनाए भगवान को सुन्दरता की खोज में, मैं अपनाए भगवान को । ” तीर्थक्षेत्रों की यात्रा भक्त जीवन की एक अभिलाषा है । ये स्थान कलात्मक मंदिर, मूर्तियाँ आदि जीवंत स्मारक हैं- मुक्तात्माओं के, महापुरुषों के, धार्मिक तथा स्मरणीय घटनाओं के। इनकी यात्रा पुण्यवर्धक और आत्मशोधक होती है । यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसका समर्थन तीर्थ यात्रियों द्वारा वहाँ बिताये जीवन से होता है । नियम, संयम, उपवास, पूजन, ध्यान, शास्त्र - स्वाध्याय, धार्मिक प्रवचनों का श्रवण, भजन-कीर्तन, दान और आहार दान आदि विविध धार्मिक कृत्यों में ही उनका अधिकांश समय व्यतीत होता है । विभिन्न व्यवसायों और देश के विभिन्न प्रदेशों से आये आबाल-वृद्ध नर-नारी वहाँ पूर्ण शांति और वात्सल्य से पुनीत विचारों में मग्न रहते हैं । यह एक तथ्य है, कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करने वालों में जैन अग्रणी रहे हैं। देश के सांस्कृतिक भण्डार को उन्होंने कला और स्थापत्य की अगणित विविध कृतियों से सम्पन्न किया, जिनमें से अनेकों की भव्यता और कला गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पड़ी है, कि उनकी उपमा नहीं मिलती और उन पर ईर्ष्या की जा सकती है। यह भी एक तथ्य है, कि जैन कला प्रधानतः धर्मोन्मुख रही और जैन जीवन के प्रायः प्रत्येक पहलू की भाँति कला स्थापत्य के क्षेत्र में भी उनकी विश्लेषणात्मक दृष्टि और यहाँ तक कि वैराग्य की भावना भी इतनी अधिक परिलक्षित है, कि परम्परागत जैन कला में नीतिपरक अंकन अन्य अंकनों पर छा गया दिखता है, इसीलिए किसीकिसी को कभी यह खटक सकता है, कि जैन कला में उसके विकास के साधक
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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