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________________ सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 143 नियन्त्रक। वैयक्तिक धर्म सामायिक, स्वाध्याय, आत्मचिन्तन, विकार नियन्त्रण संयम एवं रागद्वेष त्याग रूप है। व्यावहारिक धर्म के रूप में देवपूजा, दान, सेवा, परोपकार, अतिथिसत्कार एवं अहिंसक आचार आदि को ग्रहण किया जा सकता है। वैयक्तिक धर्म साधना द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को परिष्कृत कर समाजोपयोगी जीवन यापन करने के लिए अपने को तैयार करता है। अतः वैयक्तिक धर्म को सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से साधन माना जा सकता है। शास्त्राभ्यास से मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति वृद्धिगत होती है, जिससे वह सम्पत्ति और काम इन दोनों वर्गों को नियन्त्रित कर सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है। अर्थ मनुष्य की आवश्यकता है। न्याय-नीतिपूर्वक अर्थोपार्जन करना गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है। अर्थ लौकिक जीवन की समस्त आवश्यकताओं का साधन है। अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य भौतिक सुखों और आवश्यकताओं की पूर्ति से है। समस्त भौतिक उन्नति के साधन इसी पुरुषार्थ से समवेत किए जाते हैं। धर्म निरपेक्ष अर्थ सुखों का साधन नहीं हो सकता है और न इसके द्वारा समाज का आर्थिक उन्नयन ही सम्भव है। अतएव धनार्जन करते समय धार्मिक नियमों का पालन करना परम आवश्यक है। इसी प्रकार एन्द्रिक विषयों के सेवन के समय भी धार्मिक दृष्टि बनाये रखना जीवन नियन्त्रण का साधन है। 11. चैत्यालय संस्था : चैत्यालय प्राचीन समय से संस्कृति और समाजोत्थान के केन्द्र रहे हैं। उनका अस्तित्व एक सामाजिक संस्था के रूप में पाया जाता है। कलाकारों ने अपनी सर्वोत्तम कृतियाँ समर्पित कीं, कवियों ने अपनी कविताएँ और संगीतज्ञों ने अपने गीत पहले-पहल चैत्यालयों में ही गाये। सुन्दरता, पवित्रता, ज्ञानाभ्यास, यति-निवास एवं मनोरंजन की एक साथ प्राप्ति चैत्यालयों में होती थी। धार्मिक और सामाजिक पंचायतें, शास्त्र सभाएँ, संगीत-वाद्य का आयोजन चैत्यालयों में होता था। चैत्यालय निम्नलिखित प्रकार से उपयोगी होते थे - 1. चैत्यालय में चतुर्विध संघ निवास करता था, प्रधानतः मुनि या त्यागी वर्ग चैत्यालय में आकर ठहरता था। 2. मुनि और त्यागी वर्ग स्तोत्र पाठ करते थे। 3. शास्त्रागार भी मन्दिरों में रहते थे। स्वाध्याय शाला में बैठकर दर्शनार्थी स्वाध्याय करते थे। मुनियों का धर्मोपदेश भी श्रवण करते थे। 4. चित्रशाला भी चैत्यालयों में रहती थी, इस चित्रशाला में पुराने चित्रों के साथ नवीन चित्र भी संकलित किये जाते थे। दर्शनार्थी भगवान् के दर्शन के पश्चात् चित्रशाला में भी जाते थे और नवीन चित्रों पर अपनी सम्मति प्रकट करते थे। 5. संगीत और नाट्यशाला का प्रबन्ध भी चैत्यालय में रहता था। भगवान के
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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