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________________ 142 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन 7. ऐहिक उन्नति के साथ पारलौकिक या आध्यात्मिक उन्नति करना। 8. जातीय जीवन के सातत्य को दृढ रखते हुए धर्म कार्य सम्पन्न करना। 9. प्रेम, सेवा, सहयोग, सहिष्णुता, शिक्षा, अनुशासन आदि मानव के महत्त्वपूर्ण नागरिक एवं सामाजिक गुणों का विकास करना। 10. आर्थिक स्थायित्व के लिए उचित आय का सम्पादन करना। 11. विकास और सुदृढ़ता के लिए आमोद-प्रमोद एवं मनोरंजन सम्बन्धी कार्यों का प्रबन्धन करना।। मातृस्नेह, पितृस्नेह, दाम्पत्य आसक्ति, अपत्यप्रीति और सहवर्तिका परिवार के मुख्य आधार हैं। इन आधारों पर ही परिवार का प्रासाद निर्मित हुआ है। जैन समाज में व्यापारी वर्ग अधिक है, अतः संयुक्त परिवार प्रणाली का अधिक प्रचलन है। ____10. पुरुषार्थ संस्था : पुरुषार्थ का अर्थ है, वह वस्तु जिसे मनुष्य अपने प्रयत्नों द्वारा प्राप्त करना चाहता है। मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप, महत्त्व और लक्ष्य का निर्धारण पुरुषार्थ द्वारा ही होता है। भारतीय दर्शन में चार पुरुषार्थ माने गए हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अतः प्रत्येक व्यक्ति को इनकी प्राप्ति का प्रयास करना चाहिये। इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष परम लक्ष्य है। अर्थ और काम उस लक्ष्य तक पहुँचने के साधन हैं और इन साधनों का समुचित प्रयोग करने की विधि धर्म है। धर्म मनुष्य की पाशविक और दैविक प्रकृति के बीच की शृंखला है। यही अर्थ और काम को नियन्त्रित करता है। जैन दर्शन में पुरुषार्थ का विवेचन करते हुए बताया है, कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप मार्ग, मोक्ष रूप इसका फल तथा धर्म, अर्थ और काम रूप इसका विस्तार है। आदिपुराण में इसका विवेचन करते हुए लिखा है, कि धर्म एक वृक्ष है, अर्थ इसका फल है और काम उसके फलों का रस है। धर्म, अर्थ और काम को त्रिवर्ग कहते हैं। इनमें धर्म ही अर्थ और काम की उत्पत्ति का स्थान है। धर्म कामधेनु, चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष है।" स्वयं शान्तिपूर्वक जीवन यापन करना और अन्य लोगों को शान्तिपूर्वक जीवन यापन करने देना धर्म का ही कार्य है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य रूप धर्म सार्वभौमिक धर्म का रूप है। धर्म सामाजिक व्यवस्था में अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली अवधारणा है। यह जीवन को सुसंस्कृत और परिमार्जित करता है। धर्म वह है, जो जीवन की विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं, भोग, त्याग, मानवीय आदर्श एवं मूल्यों को नियमबद्ध कर नियमितता प्रदान करता है। यह मनुष्य के नैतिक कर्तव्यों की ओर संकेत करता है। धर्म के दो रूप हैं - वैयक्तिक शोधक-नियन्त्रक और सार्वजनीन शोधक
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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