SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन गृहस्थ को आपस में स्नेह और प्रेमपूर्वक निवास करने का उपदेश दिया गया है। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से प्रेम करती है, उसी प्रकार साधर्मी बन्धुओं के प्रति प्रेमभाव रहना चाहिए। सामाजिकता के विकास के लिए धर्मात्मा गुणी पुरुष से कोई भूल हो जाने पर इस अपराध या दोष को सभा के समक्ष प्रकट न करना और जहाँ तक सम्भव हो दोष को छिपाना आवश्यक है। सर्वसाधारण के समक्ष दोष के प्रकट हो जाने से व्यक्ति के मानस में हीनता की भावना उत्पन्न हो जाती है, जिससे उसके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिस प्रकार आत्म प्रशंसा और पर की निन्दा समाज के विकास में बाधक हैं। सामाजिकता के विकास के लिए आचार्य जिनसेन ने गृहस्थ के निम्नलिखित गुणों का निर्देश किया है। दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम्। धर्मश्चतुर्विधः सोऽयं आम्नातो गृहमेधिनाम्॥ - आदिपुराण 41/104 दान देना, पूजा करना, शील का पालन करना और पर्व के दिनों में उपवास करना यह चार प्रकार का गृहस्थों का धर्म माना गया है। वास्तव में विश्वमैत्री, गुणी-समादर, दुखित जीवों पर दया और दुर्जन उपेक्षा गृहस्थ-संस्था के लिए अत्यन्त उपादेय धर्म है। दान द्वारा समाज में सहयोग की भावना समृद्ध होती है और विश्वमैत्री द्वारा प्रेम का वातावरण प्रकट होता है। सामाजिक संगठन के तत्त्वों में प्रेम और त्याग दोनों ही आवश्यक गुण माने गये हैं। दान देने से व्यक्ति की ममता घटती है और सामाजिक ममता विकसित होती है। करुणा, दया और सहानुभूति गुण भी विश्वमैत्री के साधन हैं। गुणियों का आदर करने से समाज में सौहार्द उत्पन्न होता और मनुष्य के व्यवहार एवं सम्बन्धों का बोध प्राप्त होता है। गृहस्थ चारित्र की दृष्टि से तीन प्रकार के होते हैं - 1. पाक्षिक, 2. नैष्ठिक और 3. साधक। पाक्षिक श्रावक को सच्ची और दृढ़ आस्था तो रहती है, पर किसी श्रेणी का आचरण नहीं होता। यह 1. जुआ खेलना, 2. मांस खाना, 3. मदिरा पान, 4. शिकार खेलना, 5. वैश्यागमन करना, 6. चोरी करना व 7. परस्त्री सेवन करना इन व्यसनों का त्यागी होता है। रात्रि भोजन न करना, जल छानकर पीना एवं अष्ट मूलगुणों को धारण करना भी श्रावक के गुणों में परिगणित विश्वास उत्पन्न करता है। यह आचरण व्यक्ति तथा समाज में सच्चाई, अहिंसा, श्रद्धा और पारस्परिक विश्वास उत्पन्न करता है। नैष्ठिक श्रावक एकादश प्रतिमाओं का पालन करता है और. इसके अनन्तर आत्मा की साधना करने वाला साधक होता है और साधु संस्था में प्रविष्ट होकर मुनिपद धारण करता है। इस प्रकार चतुर्विध संघ-संस्था सामाजिक रीति-रिवाजों और मूल प्रवृत्तियों की स्वच्छन्दता का नियन्त्रण करती है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy