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________________ सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 133 आत्मोत्थान के साथ लोकमान्यता भी प्राप्त करता है, अतः सामाजिक दृष्टि से स्वाध्याय का बहुत महत्त्व है। स्वाध्याय के पश्चात् सेवा सुश्रुषा और वैयावृत्य का स्थान आता है। जो रोगी, असमर्थ या वृद्ध साधु हैं, उनकी देखभाल भी संघ के साधुओं को करनी चाहिये। वैयावत्य-सेवा को इसीलिए तप कहा गया है, कि इसका सामाजिक दृष्टि से अत्यधिक मूल्य है। साधुओं में भी सहयोग और सहकारिता की भावना वैयावृत्य से ही आती है। सेवा करने वाला छोटा नहीं हो सकता, उसकी आत्मा में अपूर्व सामर्थ्य होती है। साधुओं के लिए आत्मोत्थान हेतु विषय-कषाय चिन्तन सम्बन्धी आर्त और रौद्र ध्यान का त्यागकर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। आशय यह है, कि समस्त चिन्ताओं, संकल्प-विकल्पों को रोककर मन को स्थिर करना, आत्म स्वरूप का चिन्तन करते हुए पुद्गल द्रव्य से आत्मा को भिन्न विचारना और आत्मस्वरूप में स्थिर होना। विशुद्ध ध्यान के द्वारा ही कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर चिदानन्द परमात्म स्वरूप आत्मतत्त्व को प्राप्त किया जा सकता है। ध्यान करने से मन, वचन और शरीर की शुद्धि होती है। अतः सामाजिक दृष्टि से व्यक्तित्व शुद्धि के लिए ध्यान आवश्यक है। ___ दिगम्बर साधु 28 मूल गुणों का पालन करते हैं - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय जय, षट् आवश्यक, स्नानत्याग, दन्तधावन त्याग, पृथ्वी पर शयन, खड़े होकर दिन में एक बार भोजन ग्रहण करना, नग्नत्व और केशलुञ्चन करना। वे बड़ी शान्ति और धैय से क्षुधा, तृषा को सहते हैं। वे दूसरों के द्वारा कष्ट दिये जाने पर भी विचलित नहीं होते, सुमेरु के समान अपने व्रत और चारित्र में अटल रहते हैं। उनके लिए शत्रु-मित्र, कंचन-काँच, निन्दा-स्तुति सब समान हैं। समस्त परिग्रह के त्यागी रहने के कारण उनकी आवश्यकताएँ बहुत ही सीमित होती हैं। उपाध्याय साधु संघ में अध्यापक का कार्य करते हैं। समस्त संघ के मुनियों को ग्यारह अंग और चौदह पूर्व की शिक्षा देते हैं। साधु एकान्त में साध्वियों से वार्तालाप नहीं करते, रात्रि के समय संघ की साध्वियाँ साधुओं के निवास स्थान से पृथक स्थान पर निवास करती हैं। साध्वियों को भी आदरणीय स्थान प्राप्त हैं। साधु निःस्वार्थ भाव से जनकल्याणकारी उपदेश देने में प्रवृत्त रहते हैं। इस संस्था का समाज निर्माण में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। गृहस्थ संस्था : साधु संस्था और गृहस्थ संस्था दोनों ही परस्पर एक-दूसरे से नियन्त्रित और प्रभावित थीं। गृहस्थ कदाचारी साधुओं की स्वच्छन्दचारिता पर नियन्त्रण रखते थे। इधर गृहस्थों की धार्मिक मर्यादाएँ साधुओं द्वारा प्रतिपादित की जाती थीं।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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