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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 105 क्योंकि ये वही क्षेत्र थे, जहाँ अन्ततोगत्वा जैनों के कुछ सर्वाधिक प्रभावशाली चैत्यवास अस्तित्व में आए। मदुरै में ही आचार्य वज्रनंदी ने लगभग 470 ई. में जैनों के द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। कर्नाटक से प्रारंभ होकर जैनों की यात्रा का मार्ग कोंगुदेश (कोयंबदूर क्षेत्र) की पर्वत-श्रेणियों तिरुच्चिरापल्लि के पश्चिमी क्षेत्र और वहाँ से पुदुक्कोट्ट के दक्षिण से होता हुआ मदुरै तक का विशाल क्षेत्र माना जा सकता है। तोण्डैमण्डलम (चिंगलपट, उत्तर अर्काट और दक्षिण अर्काट) की पर्वत श्रेणियों में अवस्थित प्रस्तर-शय्याओं से युक्त गुफाओं से प्रतीत होता है, कि धीरे-धीरे कुछ जैन तमिलनाडु के उत्तरी अंचलों में भी पहुंचे थे। चोल देश में तिरुच्चिरापल्लि और कावेरी के कछारों के पश्चिमी तटों को छोड़कर तोण्डैमण्डलम के दक्षिण और पाण्ड्य राज्य के उत्तर में जैनों के प्रवेश के प्रमाण कम ही मिलते हैं। इन स्थानों से जुड़ी हुई असमंजस में डालने वाली एक ऐसी परम्परा भी है, जो उनका सम्बन्ध पाँच पाण्डव वीरों से जोड़ती है। दक्षिण भारत में ऐसे सभी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों का जहाँ पुरावशेष विद्यमान हैं, स्थानीय अनुभूतियों के अनुसार महाकाव्यों की घटनाओं से वास्तव में अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह तथ्य ब्राह्मण केन्द्रों के विषय में भी उतना ही सच है, जितना कि जैन और बौद्ध स्थानों के विषय में। इसीलिए ये पहाड़ियाँ और उनकी गुफाएँ, शय्याएँ और निर्झर सामान्यतः स्थनीय बोली में पंच पाण्डव मलै, पंचपाण्डवर टिप्प (या किट्ट), पंचपाण्डवर पडुक्कै, ऐवशुनै आदि के नाम से जाने जाते हैं। इस प्रकार संपूर्ण भारत में विभिन्न स्थानों पर ऐसे स्मारक विद्यमान हैं, जो अति प्राचीनकाल में जैन धर्म की विद्यमानता को सिद्ध करते हैं। आज पाश्चात्य देशों में भी खुदाई में भूगर्भ से अनेक ऐसे पदार्थ निकल रहे हैं, कि वे पूर्वकाल में वहाँ जैन धर्म का प्रचार होना साबित करते हैं। अमेरिका में ताम्रमय सिद्धचक्र का गटा और मंगोलिया में अनेक जैन मन्दिरों के ध्वंसाऽवशेष उपलब्ध हो रहे हैं। इतिहास से यह भी ज्ञात होता है, कि एक समय अफ्रीका में एक जैन धर्माचार्य की अध्यक्षता में शत्रुञ्जय गिरनार आदि तीर्थों की रचना हुई थी। इसी प्रकार एक समय तिब्बत में शास्त्रार्थ के लिए एक जैनाचार्य गये और शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करके जैन धर्म का झण्डा फहराया। खुदाई में निकले विभिन्न स्मारकों के अतिरिक्त ऐसे अनेक स्मारक एवं तीर्थस्थल हैं, जो स्वयं तीर्थंकरों के समय से आज तक अपने रूप में अविचल रूप से खड़े हैं। यद्यपि उनका भी अनेक बार जीर्णोद्धार हुआ है। ये ऐसे स्मारक हैं, जिनकी प्रामाणिकता जैन आगमों तथा जैनेतर साहित्य के साथ-साथ विदेशी साहित्य में भी प्राप्त होती है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थ शत्रुजय, गिरनार एवं सम्मेदशिखर हैं। ये
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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