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________________ 102 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन राजभाषा मागधी प्राकृत थी। लेकिन उस समय अधिकांश भारत में शौरसेनी प्राकृत का प्रचलन था, अतः अधिकांश शिलालेखों में यही भाषा प्रयुक्त हुई है। उदयगिरी खण्डगिरी में ई.पू. दूसरी सदी का चेदिवंशीय कलिंग सम्राट खारवेल का हाथी गुफा अभिलेख भी प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ है। यह अभिलेख जैन इतिहास की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही नन्दकालीन भारतीय इतिहास, मौर्य पूर्व युग की भारतीय प्राच्य-मूर्ति-शिल्पकला, प्राचीन कलिंग एवं मगध के राजनैतिक सम्बन्ध, दक्षिण भारतीय राज्यों से कलिंग के सम्बन्धों का उसमें सुन्दर वर्णन है। इसकी दसवीं पंक्ति में 'भरधवस' भारत का नाम लिखा है। इसे प्राचीनतम शिलालेखीय प्रमाण मानकर भारत का संवैधानिक नाम भारतवर्ष घोषित किया गया। इससे यह भी सिद्ध होता है, कि महावीर निर्वाण के 100 वर्ष बाद जैन धर्म कलिंग का राष्ट्र धर्म बन गया था। इनसे भी प्राचीन अभिलेख पिपरहवा-बौद्ध अस्थिकलश अभिलेख पाँचवीं शती ई.पू. का सोहगौरा ताम्रपत्र- अभिलेख लगभग चौथी शती ई.पू. का तथा महास्थान खण्डित प्रस्तर-पट्टिका लगभग 300 ई.पू. का प्राप्त हुआ है। इन सभी में प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है। प्रभास पाटण कठियावाड़ में भूगर्भ से एक ताम्रपत्र मिला है। इसमें लिखा है, कि 'नेबुसदनेझर नाम के राजा ने एक भव्य मन्दिर बनाकर गिरनार मण्डन नेमिनाथ को अर्पण किया है। इस ताम्र पत्र के आधार पर विद्वानों ने वाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति स्वीकार कर लिया है। नेबुसदनेझर का समय ई.पू. छठी, सातवीं शताब्दी का माना गया है।' जनरल कनिंघम ने 1871 ई.स. में सर्वप्रथम मथुरा के कंकाली टीले में खुदाई करवाई। इसमें उन्हें, जो शिलालेख मिले हैं, उनमें कई शिलालेखों पर कनिष्क, हविष्क और वासुदेव का नाम पाया जाता है, जिनका समय ईसा से पूर्व पचास वर्ष का है और कई शिलालेख तो इनसे भी बहुत पुराने हैं। 1895 ई. सन् में डॉ. फुहरर ने कंकाली टीले पर और खुदाई करवायी, जिसमें अर्हम् महावीर की एक पूरे कद की मूर्ति निकली, उस पर 299वें संवत् का एक शिलालेख भी है। यह संवत् कनिष्क, हविष्क और वासुदेव आदि कुशाणवंशी राजाओं का है। अभी तक इस सन का प्रारंभ ई. सन के 78वें वर्ष से माना जाता था। विद्वानों का मत था, कि इसे कनिष्क ने चलाया होगा। लेकिन इस शिलालेख के प्राप्त होने के पश्चात् यह माना जाने लगा, कि यह सम्वत् ईसा के 50 वर्ष पूर्व प्रचलित हुआ होगा। डॉ फुहरर ने कंकाली टीले से प्राप्त शिलालेखों व अन्य सामग्री की प्रतिलिपियाँ व चित्र डॉ. व्हूलर के पास भेजे। उन्होंने वे सब ‘एपिग्राफिका इण्डिका'
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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