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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 101 कायोत्सर्ग मुद्रा में है। यह कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा विशेष रूप से जैन है। आदिपुराण आदि में इस कायोत्सर्ग मुद्रा का उल्लेख ऋषभदेव तपश्चरण सम्बन्ध में बहुधा हुआ है। जैन ऋषभ की इस कायोत्सर्ग मुद्रा में खड्गासन प्राचीन मूर्तियाँ ईसवी सन् के प्रारम्भकाल की मिलती है। मोहर न. 3 से 5 तक के ऊपर अंकित देव मूर्तियों के साथ बैल भी अंकित है, जो ऋषभ का पूर्व रूप हो सकता है। ऋषभ या वृषभ का अर्थ होता है, ल और ऋषभदेव तीर्थंकर का चिह्न बैंल ही है। ___प्राचीन वैशाली के बसाढ़ स्थल से खुदाई में चौथी शताब्दी ई.पू. की 24 मिट्टी की मोहरें प्राप्त हुई। हड़प्पा से भी अनेक मोहरें प्राप्त हुई हैं। सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त मोहरों पर कुछ लिखा हुआ भी है, लेकिन उसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त मुद्राओं के द्वारा वहाँ देवी पूजा तथा शैव पूजा की भी पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त उन मोहरों से पशु आराधना के संकेत भी मिलते हैं। प्रो. मार्शल के अनुसार पशुओं का चित्रण मुहरों पर मिला है। मिस्र में भी नंदी या सांड की पूजा होती थी। बैल की पूजा तो लगभग सभी प्राचीन सभ्य देशों में लोकप्रिय थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव की प्राचीनतम सभ्यता के काल में मोहरें धातु की न होकर मिट्टी की होती थीं। उन पर अंकित आकृतियाँ उनके धार्मिक विश्वास को उजागर करती हैं, जो स्पष्ट रूप से जैन धर्म व संस्कृति की प्राचीनता का पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। 3. अभिलेख : मुहरों, प्रस्तर, स्तंभों, चट्टानों, ताम्र पत्रों, ईंटों, मन्दिरों की भित्तियों पर अभिलेख प्राचीन लिपी के रूप में पाये जाते हैं। सिन्धु घाटी से प्राप्त अभिलेख सबसे प्राचीन हैं, लेकिन वे अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। इस लिपी का सम्बन्ध कुछ हद तक भारत की द्रविड़ भाषा से हो सकता है। उर्दू की तरह हड़प्पा लिपी भी दायें से बायें ओर लिखी जाती थी। इसकी पुष्टि दो हजार अभिलेखों के अध्ययन से होती है। इस भाषा के लगभग चार सौ चिह्न अक्षर थे। लेकिन यह इन्डोग्राफिक या लोगोग्राफिक या किसी तीसरे प्रकार की लिपी थी। स्केनडिनेविया के डॉ. परपोला के अनुसार इनमें से कुछ प्राचीन तमिल भाषा के आधार पर पढ़े जा सकते हैं। लेकिन अन्य विद्वान् इसे नहीं मानते। __प्राचीन समय के सहस्रों लेख प्रकाश में आए है तथा निरन्तर खुदाई से नए अभिलेखों का पता चल रहा है। यद्यपि सभी अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, फिर भी अक्षरों की बनावट, उनमें प्रयुक्त भाषा के आधार पर उनका काल मोटे रूप में निर्धारित हो जाता है। इनमें सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख प्राकृत भाषा में मिलते हैं। सर्वाधिक अभिलेख सम्राट अशोक के द्वारा लिखवाए गए शिलालेख हैं। सभी शिलालेख जनभाषाओं से अभिप्रेत प्राकृत में ही लिखे गए है। सम्राट अशोक की
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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