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________________ इन ११ अतिशयोमें दिव्यध्वनि भी एक अतिशय हैं। जैन-आ० यतिवृषभ के इस कथन से दो बातें एकदम साफ हो जाती है। तीर्थकरको घातिकर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले अतिशय दस नहीं किन्तु ग्यारह हैं दूसरा दिव्य ध्वनि का अतिशय इन में ही सामेल है । आ० समन्तभद्रजी भी दिव्यध्वनिको "सर्व भाषा स्वभावकम्' माने देवकृत नहीं किन्तु घाति कर्म ज स्वाभाविक अतिशयरूप मानते हैं। और श्वेताम्बर शास्त्र भी ऐसा ही बताते हैं। सारांश-निरक्षरी वाणीको मागध देव द्वारा साक्षरी होनेका मानना यह कोरी कल्पना ही है। दिगम्बर-श्वेताम्बर शास्त्र में भी तीर्थकर की वाणीके लीए अतिशय माना गया है। (प्रवचन सारोद्धार गा० ४४३) जैन-श्वेताम्बर शास्त्र केवलीओं के लीए नहीं किन्तु सिर्फ तीर्थकरके लिये ही "नियभासाए नर तिरि सुराण धम्मावबोहिया वाणी" ऐसा 'कर्म क्षय जात' अतिशय बताते हैं, इसमें न देव का सन्निधान मानते हैं न निरक्षरता मानते हैं। स्पष्ट है कि तीर्थकर भगवान् अर्ध मागधी भाषामें उपदेश देते हैं। साक्षरी वाणी बोलते हैं और सुनने वाले अपनी २ भाषा में ज्ञान मिलता हो वैसे समझ लेते हैं अतिशय के द्वारा इससे अधिक क्या हो सकता है ? केवली भगवान् भी साक्षरी वाणी ही बोलते हैं, मगर वे उक्त अतिशय के न होने के कारण सीर्फ पर्षदा के योग्य उपदेश देते हैं । उनके लिये न समवसरण होता है न बारह पर्षदा होती है । न सर्व भाषामें बौध परिणमन होनेकी परिस्थीति होती है । आ० कुंदकुंदके "बोध प्राभृत"की टीका का अर्ध भगवद भाषाया मगधदेश भाषात्मक, अर्धं च सर्व भाषात्मकं । इत्यादि पाठ अंश भी साक्षरी भाषा के पक्ष में ही जाता है। दिगम्बर-कई दिगम्बर शास्त्रों में पुराणों में केवली भगवान और राजा व सेठों का प्रश्नोत्तर है, अतः केवलीओं की वाणी साक्षरी होती है यह तो मानना पड़ता है। श्री “अंगपन्नति" (श्री
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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