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________________ [ ८ ] नुयोग की अपेक्षा जन्मतः कोई गोत्र या वर्ण नहीं है" | "वंशकृत अशुद्धता व कोढ आदि बीमारियां परम्परा तक चलती हैं यह नियम नहीं है। ___"सब ही अघातिये कर्म गुण श्रेणि के आरोहण में बेजान समझे जाते हैं। गोत्रकर्म का परिवर्तन तो एक साधारण सी बात है । अघातिया कर्म जीव के दर्शन शान सम्यक्त्व आदि गुण तो क्या अनुजीव गुण स्पर्षरसगंधवर्णादि का जो शान है उसका भी घात नहीं करसकता और नीच कुल में जन्म लेने पर भी कषाय योग के प्रभाव से व भाव शुद्धि से नीचसंस्कार फल को प्राप्त नहीं होते । क्योंकि कुल संस्कार से बने हुए गोत्र कर्मों का पाक जीवन में होने से जीव के संयम रूप परिणाम हो जाने पर प्राचरण में स्वभावतः परिवर्तन हो जाता है। यही जीव विपाकी गोत्रकर्म की प्रकृति का प्रकरणांतर गत यथार्थ अर्थ है" । "नांच गोत्र की कर्म प्रकृति...... “नांच गोत्र रूप हो जाती है " गा० ४१०, ४२२ । "यह तीनों संक्रमण अपनी २ बंधव्युच्छित्तिसे प्रारंम्भ होकर क्रमशः अप्रमत्त (७) से लगाकर उपशांत कषाय (११) पर्यन्त पूर्ण हो जाते है" जैसे नीच गोत्र उच्च गोत्र हो सकता है उसी प्रकार उच्च गोत्र भी अपकर्षण करके नीच गोत्र हो जाता है और गोत्र कर्म का उद्वेलन होकर सर्व संक्रमण तक होता है। ___ बंध की अपेक्षा से भी गोत्र का परिवर्तन स्पष्ट है उपशम श्रेणी से उतरते समय सूक्षम संपराय गुणस्थान में १-अनुत्कृष्ट उच्च गोत्र का अनुभाग बंध होता है वह सादिबंध है, २सूक्षम संपराय से नीचे रहने वाले जीवों के वह अनादि बंध है, । अभव्य जोकों के ध्रुव बन्ध है, तथा ४-उपशम श्रेणी वाले
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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