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________________ [ ८७ ] (रस्न करम्ड श्रावकाचार श्लो. २८-१९) विप्र क्षत्रिय विट् शूद्राः प्रोक्ताः क्रिया विशेषतः। जैनधर्मे पराः शक्ताः ते सर्व बांधवोपमाः ॥ प्राचार की विशेषता से ब्राह्मण वगैरह संज्ञाएं हैं, किन्तु धर्म में तो वे सब बन्धु के समान हैं। (भा. ......."कृत त्रिवर्णा चार धर्म रसिक ) प्राचारमात्र भेदेन, जातीनां भेद कल्पनम् । न जातिाह्मणीयास्ति, नीयता कापि तात्वीकी ॥ गुणैः संपद्यत जाति र्गुणध्वंस विपद्यते । ... आचरण के भेद से जाति भेद है । परमार्थ से तो ब्राह्मण श्रादि कोई नियत जानी नहीं है । गुण के अनुसार जाती बनती है । गुणों के बदल जाने पर जाति भी बदल जाती है। (धर्म परीक्षा) अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुस्थिता पि वा । ध्यायेत्पंच नमस्कारं, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रो पबित्रोवा, सर्वावस्थां गतो पि वा। यः स्मरेत् परमात्मानं, स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥ २॥ मनुष्य कैसा भी हो. किन्तु नमस्कार मंत्र के जाप से वो निश्पाप पवित्र बनता है । अपवित्र भी तर्थिकरके जाप करने से बाहिर से और भीतर से पवित्र बनता है। (देव शास्त्र गुरु पूजा, जैन सिद्धान्त संग्रह पृ० १८४.१८५ ) गोत्र कर्म, यह जीव विपाकि प्रकृति है । नामकर्म, शरीर की भेद व्यवस्था करता है गोत्र कर्म आचरण रूप क्रिया की व्यवस्था करता है, गोत्र कर्म भाव कर्म है। "वास्तव में द्रव्या
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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