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________________ चतुर्थ अध्याय : ८५ से इस्पात की सूचना मिलती है ।' धातुओं के परिशोधन तथा मिश्रित धातुओं के उत्पादन को कला से लोहार परिचित थे, लौह और स्वर्ण उद्योग धातु उद्योगों में प्रमुख थे। लौहोद्योग लौह उद्योग आज के समान विस्तृत पैमाने पर नहीं था, अपितु कुटीर उद्योग के रूप में प्रचलित था । लौह का काम करने वाले को लौहकार या अयस्कार कहा जाता था। नगरों और गांवों में स्थान-स्थान पर लौहकारों की शालायें होती थीं, जिनको "समर" अथवा "अयस' कहा जाता था। महावीर विहार करते हुये कई बार इन लौहकार शालाओं में ठहरे थे। लोहारों का काम बहुत उन्नति पर था, वे कृषि के उपकरण, हल, कुदाल, फरसा, द्रांतियाँ, हँसिया आदि तथा साथ ही बहुत सी गृहोपयोगी वस्तुयें कैंची, छुरियाँ, सूइयाँ, नखछेदनी आदि भी बनाते थे। लोहार प्रातः ही भट्ठी जलाकर अपना कार्य आरम्भ कर देते थे। भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि लोहा तपाने वाली भट्टी में लोहे को डालकर तप्त किया जाता था। बीच-बीच में चमड़े की बनी हुई धौकनी से अग्नि को और अधिक प्रज्ज्वलित किया जाता था। इसके बाद प्रतप्त लोहे को लौह-निर्मित उपकरण सँड़सी से आवश्यकतानुसार ऊँचा-नीचा किया जाता था। फिर प्रतप्त लोहे को एरण पर रखकर चर्मेष्ठ अथवा मुष्टिक (हथौड़े) से पीटा जाता था। पोटे हये लोहे को ठंडा करने के लिये कुण्ड में डाला जाता था जिसे "द्रोणी" कहा जाता था। लोहार लोहे को पीट-पीटकर अत्यन्त पतला कर लेते थे और उससे अनेक प्रकार के युद्ध के उपकरण, मुद्गल, मुशंडि, करौंत, त्रिशूल, हल, गदा, भाला, १. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३५३४. २. समरं नाम जित्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करोति उत्तराध्ययनचूणि, १/२६ ३. आचारांग १/९/२/२ ४. एगीकरेति परसुं णिवत्तेतिणखछेदणं अवरो । कुंत कणगे य वेज्झे, आरिय सूई अ अवरो उ। बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३९४३ ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३ गाथा २५६० ६. भगवतीसूत्र, १६/९/७
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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