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________________ तृतीय अध्याय : ५३ अथवा घर के ऊपर बने हुए कोठों में रखा जाता था । कोठे के द्वार को ढँककर पूर्णतः बन्द कर दिया जाता था और उसका मुख गोबर और मिट्टी से लीप दिया जाता था ।' आज भी कोठलों ( कोठारों ) के मुखों को बन्द करने के लिये गोबर में मिट्टी मिश्रित करके लीपा जाता है । भगवती सूत्र से ज्ञात होता है कि शालि, व्रीहि, गोधूम, यव, कलाय, मसूर, तिल, मूंग, माण, कुलत्थ, अलिमन्दक, तुअर, अलसी, कुसुम्भ कोद्रव, कंगनी, राल, सन आदि धान्यों को बांस के छबंडे, मचान या पात्र विशेष में रखकर उसका मुख गोबर से लोप दिया जाता था फिर उन्हें मुद्रित और चिह्नित करके रखा जाता था इससे धान्यों की अंकुरण शक्ति दीर्घ काल तक रहती थीं । कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी ऐसे भण्डारण का उल्लेख हुआ है । ये ऊँचे स्थानों पर बनाये जाते थे और इतने दृढ होते थे कि वर्षा और आंधी से भो प्रभावित नहीं होते थे । गाँव से दूर कभी-कभी पर्वतों और विषम प्रदेशों में भी ऐसे भण्डार बनाये जाते थे, जिन्हें 'सम्बन्ध' कहा जाता था । कृषक अपना धान्य गाड़ियों पर लादकर यहां तक पहुँचाते थे । इससे प्रतीत होता है कि सार्वजनिक भण्डार-गृह भी थे जहाँ किसान सम्मिलित रूप से धान्य रखते थे । व्यवहारभाष्य में ऐसे कुटुम्बी का उल्लेख है जो आपकाल के लिये अपने धान्य को कोष्ठागार में भरकर रखता था । " धान्य-भण्डारण हेतु मिट्टी के बड़े-बड़े भाण्डों का भी प्रयोग किया जाता था । जिसमें इदुर - सूत या बालों की बनी बोरी । आलिन्द — धान्य रखने का एक बर्तन और उपचारि - विशाल कोठे का उल्लेख मिलता है । प्रमुख उपज निशीथ चूर्णि से स्पष्ट होता है कि कृषि उद्योग बड़ी उन्नति पर था, विविध प्रकार के धान्य उगाये जाते थे । जिनमें यव, गोधूम, शालि, १. ज्ञाताधर्मकथांग ७।२० २. कौटिलीय अर्थशास्त्र २५/४१ ३. सवाहो संवोदु वसति जहि पव्वयाइविसमेसु — बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १०९२ ४. व्यवहारभाष्य, भाग ६, पृ० ३० ५. अनुयोगद्वारसूत्र १४४ ६. वही
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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