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________________ ४ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन प्रकीर्णक ये संख्या में दस हैं (१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान, (४) भक्तपरिज्ञा, (५) तन्दुलवैचारिक, (६) संस्तारक, (७) गच्छाचार, (८) गणिविद्या, (९) देवेन्द्रस्तव और (१०) मरणसमाधि ।' आगमों का रचनाकाल आगम श्रुत परंपरा से चले आ रहे थे । अतः आगमों की रचना का निश्चित काल निर्धारित नहीं किया जा सकता । आगमों का रचनाकाल महावीर से पूर्व और वलभी वाचना के बाद का नहीं हो सकता। अतः सामान्य तौर पर विद्वानों ने आगमों का काल पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है । मूलतः आगमों को लिपिबद्ध करने का निषेध होने से उनके पठन-पाठन की परंपरा मौखिक थी। लिपिबद्ध न होने के कारण और स्मृतिदुर्बलता के कारण आगम अंशतः विस्मृत होते गये। श्रुत के ह्रास और उसमें आई अनिश्चितता के निराकरण के उद्देश्य से परवर्ती आचार्यों ने उसे संकलित, सुव्यवस्थित, साथ ही सुनिश्चित और सम्पादित करने के लिये चार वाचनाय आयोजित की थी। __ आवश्यकचूणि से ज्ञात होता है कि प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के लगभग १६० वर्ष पश्चात् अर्थात् ३६७ ई० पू० में मौर्य सम्राट चन्द्रगप्त के राज्यकाल में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई। दूसरी वाचना महावीर के निर्वाण के लगभग ८२७ अथवा ८४० वर्ष पश्चात् सन् ३०० से ३१३ ई० के मध्य मथुरा में स्कन्दिल की अध्यक्षता में, और तृतीय वाचना लगभग उसी समय वलभी में नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई थी जिसे वलभी वाचना कहा जाता है। चतुर्थ और अन्तिम वाचना महावीर के निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष पश्चात् अर्थात् ४५४ ई० में देर्वाद्धगणि की अध्यक्षता में वलभी नगर में हुई। प्रथम-द्वितीय और तृतीय वाचनाओं १. १-च उसरण, २-आउरपच्चक्खाण, ३-महापच्चक्खाण, ४-भत्तपरिणा ५-तंदुलवेयालियं, ६-संथारग, ७-गच्छाचार, ८-गणिविज्जा, ९-देवीदत्यय, १०-मरणसमाहो दोशी, बेवरदास : जैन सहित्यका बृहइतिहास,भाग १, पृ० २७ २. वही भाग १, पृ० ५१ ३. आवश्यकचूर्णि, भाग २,पृ० १८७ ४. नंदीसूत्र, सूत्र ३७ : नंदाचूणि, पृ० ८
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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