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________________ पंचम अध्याय : १४१ पार्जन करने वाले को 'कूडकहापणोजीवी' कहा गया है।' यह उल्लेख इंगित करता है कि कुछ लोगों को आजीविका खोटे-सिक्कों पर निर्भर थी। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी खोटे सिक्के बनाने वाले दण्ड के भागी बताये गये हैं। चाँदी के सिक्के रुवग और रूप्य नाम से भी प्रचलित थे । भिन्न-भिन्न राज्यों में रुवग, भिन्न-भिन्न मूल्यों और भिन्न-भिन्न नामों से प्रचलित थे । रुवग के मूल्य और नाम में अलग-अलग राज्यों में विभिन्नता थी। सौराष्ट्र और दक्षिणापथ में रुवग को समारग कहा जाता था। निशीथचूर्णि में एक राजा द्वारा अपने सिपाहियों को समारगों में वेतन दिये जाने का उल्लेख है। ___ इसी प्रकार उत्तरापथ के रुवग को 'उत्तरपहगा' और दक्षिणापथ के रुवग को 'दक्षिणपहगा' तथा कांचीपुर के रुवग को 'नेलक' कहा जाता था।" पाटलिपुत्र में प्रचलित सिक्का प्रामाणिक माना जाता था । बृहत्कल्पभाष्य से सूचित होता है कि दक्षिणापथ के दो रुवगों का मूल्य उत्तरापथ के एक रुवग के मूल्य के बराबर तथा उत्तरापथ के दो रुवगों का मूल्य पाटलिपुत्र के एक रुवग के मूल्य के बराबर था।६ दक्षिणापथ के दो रुवगों का मूल्य कांचीपुर के एक नेलक के मूल्य के बराबर था और कांचीपुर के दो नेलकों का मूल्य पाटलिपुत्र के एक रुवग के मूल्य के बराबर था। पं० दलसुख मालवणिया के अनुसार इन सिक्कों का प्रचलन संभवतः सौराष्ट्र और गुजरात में रहा होगा, क्योंकि उत्तरापथ और दक्षिणापथ १. प्रश्नव्याकरण २/३ २. कौटिलीय अर्थशास्त्र ४/१/७६ ३. निशीथचूणि--दोसाभरगाथे दीविच्चगाउ सो उत्तरापघे एक्को । निशीथचूणि भाग २, गाथा ९५८, बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, गाथा ३८९१ ४. वही, भाग ३, गाथा ५०३६ ५. बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, गाथा ३८९१; निशीथचूणि, भाग २, गाथा ९५८. ६. 'दो साभरगा दीविक्चगाउ सो उत्तरापथे एक्को; दो उत्तरपहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को' बृहत्कल्पभाष्य ४/३८९१ ७. 'दो दक्खिणावहा, तु कंचीए णेलओ स दुगुणो य एगो कुसुमणगरगो' वही ४/३८९२; निशीथचूणि, भाग २, गाथा ९५९
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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