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________________ १४० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन भृत्य को भृत्ति में एक सुवर्ण माषक प्रतिदिन की वृद्धि कर दी थी। उत्खनन से प्रचुर मात्रा में सुवर्ण सिक्कों की प्राप्ति गुप्तकाल की समृद्ध आर्थिक व्यवस्था की ओर संकेत करती है क्योंकि चन्द्रगुप्त प्रथम से लेकर विष्णुगुप्त तक लगभग सभी शासकों ने सोने के सिक्के प्रचलित किये थे। रजत-सिक्के खुदाई में प्राचीनकाल के चाँदी के सिक्के प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। चाँदी के सिक्कों में 'कार्षापण', 'पाद कार्षापण', माष-कार्षापण, रुवग, सुभाग, नेलक और द्रम्म का उल्लेख हुआ है । चाँदी के गोल और चौकोर आयत सिक्कों को कार्षापण कहा जाता था। डा. वसुदेव उपाध्याय के अनुसार कार्षापण का मूल्य नाप-तौल के आधार पर निर्धारित किया गया था। रत्ती को कर्ष और कर्ष द्वारा तौले जाने वाले सिक्के को कार्षापण कहा जाता था। उत्तराध्ययन से ज्ञात होता है कि एक 'द्रमक' ( ब्राह्मण भिक्षुक ) ने यत्न-पूर्वक एक सहस्र कार्षापण अजित किये और सार्थवाह के साथ गाँव को ओर प्रस्थान किया । मार्ग में उसने एक कार्षापण को भुनाकर कई काकिणियां प्राप्त की और वह प्रतिदिन भोजनहेतु एक काकिणी व्यय करता था ।२ इस प्रकार विपाकसूत्र के अनुसार एक गणिका एक रात के लिए एक सहस्र कार्षापण ग्रहण करती थी। सम्भवतः कार्षापण सिक्के चाँदी के ही होंगे, क्योंकि दैनिक उपयोग की वस्तुओं का मूल्य सुवर्णमुद्राओं में होना अस्वाभाविक लगता है। कार्षापण के छोटे सिक्के भी प्रचलित थे, अर्धमूल्य के सिक्के को 'अर्ध-कार्षापण' और चौथाई मूल्य के सिक्के को ‘पादकार्षापण' कहा जाता था। सोलहवें भाग का सिक्का 'माष-कार्षापण' कहा जाता था । मनुस्मृति में चाँदी के कार्षापण को धरण और पुराण संज्ञा दी गई है। उत्तराध्ययन में 'क्ड कहावण' ( खोटे कार्षापण ) का उल्लेख हुआ है, जिसे अप्रामाणिक माना जाता था । खोटे सिक्के से जीविको १. 'पतिदिवसं सुवण्णमासतो वित्ति कता' निशीथचूणि भाग ४, गाथा ६५४१ २. उत्तराध्ययन ४/१६१ ३. विपाक २/२ ४. मनुस्मृति ८/३६ ५. उत्तराध्ययन २०/४२
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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