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________________ १३२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन कपड़े की ध्वजा बनाकर टांग देते थे । वृक्ष पर फहराती ध्वजा समुद्र के मध्य क्षतिग्रस्त पोत के विपत्तिग्रस्त यात्रियों की उपस्थिति की ओर संकेत करती थी। वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि समुद्रयात्रा में सानुदास और सागरदिन्ना का जलयान नष्ट हो गया था। वे तैरते हुये किसी प्रकार एक द्वीप पर पहुँचे, वहीं रहने लगे और विवाह भी कर लिया। उस द्वीप से निकलने के लिये वहाँ से जाते हये जलयानों का ध्यान आकर्षित करने के लिये उन्होंने ऊँचे वृक्ष पर ध्वजा फहरा दी और अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी। इसी प्रकार कुवलयमालाकहा के उल्लेख के अनुसार पाटलिपुत्र का धन नामक व्यापारी जब रत्नद्वीप जा रहा था तो उसका पोत क्षतिग्रस्त हो गया, वह भटकता हुआ ऐसे द्वीप में पहुँच गया, जो अनेक हिंसक जानवरों से युक्त था तथा वहाँ के फल कड़वे थे। इसी प्रकार दो अन्य यात्री भी वहाँ पहुँचे, तीनों ने आपस में परामर्श करके एक ऊँचे वृक्ष पर “भिन्नपोतध्वज' के रूप में वल्कल टाँग दिये ।। जलमार्गों से यात्रा करने वालों की सुरक्षा हेतु राज्य द्वारा किये जाने वाले प्रबन्ध के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं है। जबकि कौटिलीय अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि राज्य जलमार्गों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता था। राज्य की ओर से नियुक्त पोतवाध्यक्ष का यह कर्तव्य था कि वह यात्रा करने वाले जलयानों और नावों की सुरक्षा का ध्यान रखे । नौका-संचार सम्बन्धी असावधानी के कारण होने वाली क्षति की पूर्ति नौका या प्रवहण के स्वामी को करनी पड़ती थी।' जलवाहन नौका, पोत और जलयान जलमार्ग से यात्रा के साधन थे। निशीथचर्णि में चतुर्विध जलयानों का उल्लेख है, जिनमें से एक समद्री मार्ग के उपयुक्त माना जाता था और शेष तीन नदियों और झीलों में चलते थे।५ समुद्र में चलने वाले जलयान को "पोत" और "प्रवहण" कहा १. संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृ० २५३ २. वही भाग १, पृ० २५३ ३. उद्योतनसूरि-कुवलयमालाकहा, पृ० ८९ ४. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२८/४५ ५. उदगे चउरो णावाप्पगारा भवंति । तत्थ एगा समुद्दे भवति तिण्णि तिण्णि य समुद्दातिरित्ते जले। निशीथचूणि, भाग १, गाथा १८३
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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