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________________ पंचम अध्याय : १३१ दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे। लोगों को यह धारणा थी कि समुद्र यात्रा से अधिक धनार्जन सम्भव था।' इसलिए व्यापारी धनार्जन की आकांक्षा से समुद्री मार्गों से विभिन्न द्वीपों तक यात्रा करते थे। समद्र में पाल और पतवारों के सहारे चलने वाले बडे-बडे जलपोत चलते थे। निर्विघ्न यात्रा के लिये व्यापारी अपनी पुरानी नावों को छोड़कर नई द्रुतगामी नावें ले लेते थे। जलयान चलते ही पाल और लंगर खोल दिये जाते थे। नाविक पतवार चलाना शुरू कर देते थे । कर्णधार और कुक्षिधार अपने नियत स्थानों पर पहुँच जाते थे। जलयान अपने मार्ग पर चल पड़ता था और अनुकूल हवा मिलते ही आगे बढ़ने लगता था। समुद्रयात्रा की निर्विघ्नता अनुकूल वायु पर निर्भर होती थी। अतः समुद्री हवाओं का ज्ञान रखना अत्यन्त आवश्यक था । प्रमुख पोत-वणिक् अरहन्नक अनुकूल वायु होने पर गम्भीरपत्तन से चम्पा हेतु प्रस्थान किया था। प्राचीनकाल में जलयान आज जैसे सुदृढ़ नहीं होते थे। फलतः समुद्री तूफानों और विशाल चट्टानों से टकराकर क्षतिग्रस्त हो जाते थे । दुर्घटना में यात्रो डूब भी जाते थे ।" कुछ लोग सम्भावित तफान का संकेत- ग्रहण करने में सक्षम होते थे। कवलयमालाकहा से ज्ञात होता है कि सार्थवाह सागरदत्त का पंजरपुरुष ( ऋतु विशेषज्ञ ) उत्तर दिशा के काले मेवों को देखकर आशंकित हो गया, उसने सामग्री को नीचे तलवर में भेजकर, यान-रज्जुओं को ढीला कराकर तत्काल यान को स्थिर कराया था । दुर्भाग्यवश कभी-कभी समुद्री तूफानों में फंसकर लोग अज्ञात द्वीपों में पहँच जाते थे। तब उस मार्ग से जाने वाले दूसरे यानों का ध्यान आकर्षित कर सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। वे ऊँचे वृक्षों पर १. हरिभद्रसूरि-समराइच्चकहा ४/२४६ २. निशीथचूणि भाग ४, गाथा ६००२, ६००३ ३. ज्ञातावर्मकथांग ८/६९, ७० ४. ज्ञाताधर्मकथांग ८/८४ ५. वही ९/१० ६. “पंजर-पुरिसेण उत्तर-दिसाए दिह्र एक्कं सुप्पपमाणं कज्जल कसिणं मेह-पडलं' उद्योतनसूरि-कुवलयमाला, पृष्ठ १०६
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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