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________________ सातवां प्रकरण । अहमदाबाद को गई जहां कि भीविजयसेनसूरि विराजते थे । इस पुत्र की 'सौम्याकृति' और विस्ताणलोचन आदि उत्तम चिन्हों को देख कर सूरीश्वर ने मन में विचार किया कि यह बालक भविष्य में समस्त संघ को संतोष करने वाला होगा । जब सूरीश्वर ने यह भी सुना कि माता के साथ में यह वालक भी दीक्षा लेने वाला है, तब तो कहना ही क्या था ? सारे संघ में आनन्दर फैलगया। इसके बाद सूरीश्वर ने शुभमुहूर्त में सं-१६४३ मिती माघ शुक्ल दशमी के दिन माता और पुत्र दोनों को दीक्षा दी । सुरीश्वर ने इस दीक्षित मुनिका नाम 'विद्याविजय' रक्खा। पाठक इस बातका विचार कर सकते हैं कि इस नववर्ष के बा. लक के अन्तः करण में दीक्षा लेन का विचार होना और माता का प्राशा देना कैसी आश्चर्य की बात है ? क्या यह बातें सिवाय पूर्व जन्म के संस्कार के हो सकती है ? कभी नहीं ? ___ छोटी ही अवस्था में मुनि विद्या विजयने निष्कपट होकर, व. विनय पूर्वक गुरु महाराज से विद्याभ्यास कर लिया । दीक्षा हो जाने के बाद यहां पर एक महिषदे' नाम की धाविका रहती थी। उस के घरमै फाल्गुन शुक्ल एकादशी के रोज सूरीश्वर ने जिनबिंव की प्रतिष्ठा की। इस समय में गन्धारवन्दर से 'इन्द्रजी' नाम के शेठ प्राचार्य को वन्दना करने को भाये थे । इन्होंने सूरिजी से विनति की कि-'श्रीमहाबीरस्वामी की प्रतिष्ठा करवा करके मै अपने जन्म को सफल करना चाहता हूं । प्रतएव आप अपने चरण कम से गन्धार बन्दर को पवित्र करिए '। इस बिनति को स्वीकार करके महमदाबाद से बिहार करके भीविजयसेनसूरि गन्धारबन्दर में पधारे । यहाँ पर पधार करके मापने दो प्रतिष्ठाएं की। एक सं. १६४३ मिती ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन 'इन्द्रजो' शेठ के घर में
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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