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________________ विजयप्रशस्तिसार । 'महावीर स्वामी की और दूसरी ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी के दिन ‘धनाई' नाम की श्राविका के मन्दिर में । सूरीश्वर ने चातुर्मास स्तम्भ तीर्थही में किया। अब इधर भीहीरविजयसूरीश्वर ने अनुक्रम से श्राग्रा फतेपुर. अभिरामाषाद और पाना इस तरह चार चातुर्मास करके इधर मरु दशको पवित्र करते हुए 'फलोधी' तीर्थ की यात्रा करके श्री नागपुरमे पधारे । और वहाँ ही चातुर्मास किया। चातुर्मास समाप्त होने के बाद श्रीसूरीश्वरने गुजरात जाने का विचार किया । जय गुजरात में बिचरते हुए श्रीविजयसेनसृरिणी ने यह बात सुनी कि गुरु वर्य गुजरात पधारते हैं तब वह अत्यन्त खुश हुए और गुरु वर्य के सामने जाने को प्रस्तुत हुए। श्रीविजयसेनसूरि आदि मुनीश्वरों ने 'शिरोही' आकरके श्रीहरिविजय सूरिजी के दर्शन करके अपनी प्रात्मा को कृतार्थ किया । सिरोही में यह दोनों धुरंधर आचार्यों के पधारने से लोगों को बहुत ही लाभ हुश्रा । कुछ काल शिरोही में गुरु पर्यकी सेवा में रह करके बाद गुरुअाशा रूप माला को कण्ठ में धारण करके श्रीविजयसेनसूरीश्वर ने शिरोहीसे विहार किया। और पृथ्वीतल को पावन करते हुए आप वजीनाराजी नामक श्राद्ध के वहाँ भईतू प्रतिष्ठा करने के लिये स्तम्भतीर्थ पधारे। ___ गन्धार बन्दर में 'आल्हण” नामक श्रेष्ठी के कुल में 'वजीरा' तथा 'राजीना' नामक दो भाइ बड़े धर्मात्मा रहते थे । वह दोनों प्रेमी बन्धु गन्धार बन्दर से संभात गये । एक दिवस देववसातू इन दोनों भाइयों ने खंभात में आ करके देव भक्ति-गुरु भक्ति-स्वामि वात्सल्य--तथा अन्य प्रकार के दान करके बहुत द्रव्यका व्यय किया । यहां पर इन लोगोंने ऐसे उत्तमोत्तम कार्य किये कि जिससे इन दोनों की कीर्ति देश-देशान्तरों में फैल गई।
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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