SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार द्वितीय अणुव्रत के विषय में धन-धरण की कथा संपूर्ण हुई। मेरी पत्नियों ने साधु के मुखकमल से निकलते हुए सत्य रूपी मकरंद बिंदुओं को पीकर, पुण्य रूपी वृक्ष का मूल और अद्भुत ऐसे द्वितीय व्रत को भी स्वीकार किया। तब मैं सोचने लगा कि - यह भी मेरे हित में ही है, क्योंकि क्रोधित होने पर भी ये मुझे झूठी कथाओं से नही ठगेगी। अब मैं इन मुनिराज पर तीन-तीन बार ही लकडी से प्रहार करूँगा। इस प्रकार सोचते हुए मैं वैसे ही मुख्य दरवाजे पर खड़ा रहा। उसके बाद मुनिराज इस प्रकार मधुर और प्रसिद्ध वचन कहने लगे कि मंगल की कामनावालें मनुष्य दूसरों की अदत्त अणुमात्र अथवा स्थूल परिमाणवाली वस्तु भी नहीं ग्रहण करते हैं। दूसरों के धन अपहरण करनेवालें प्राणी इहलोक और परलोक में भी किसी के विश्वासपात्र नहीं होतें हैं। तथा वध, बंधन, हाथ-पैर आदि शरीर अवयवों का छेदन, दरिद्रता आदि अत्यंत भयंकर दुःख प्राप्त करतें हैं। जो पर धन ग्रहण से विरत होते हैं, वे सिद्धदत्त के समान सुखी होतें हैं ओर जो पर धन में आसक्त होते हैं, वे कपिल के समान घोर दुःख भोगतें हैं। ये दोनों कौन हैं? ऐसा मेरी पत्नियों के द्वारा पूछे जाने पर उन मुनिराज ने इस प्रकार कहा - विशाल नामक नगर में, मातृदत्त तथा वसुदत्त नामक दो मित्र व्यापारी निवास करते थे। एकदिन वे दोनों, मुनि को वंदन करने के लिए नगर के उद्यान में गये। मुनिभगवंत की देशना सुनकर, मातृदत्त ने उनके समीप से अदत्त धन की विरति ग्रहण की। किंतु तृष्णा हृदयवाले वसुदत्त ने यह विरति ग्रहण नही की। दोनों भी सामान्य स्थितिवाले थे, किंतु मातृदत्त न्यायपूर्वक व्यापार करता था और वसुदत्त व्यापार में कूट तोल, कूट परिमाण आदि करता था। एकदिन वे दोनों व्यापार करने की इच्छा से अल्प मूल्यवालें बर्तन आदि व्यापार की सामग्री लेकर, पांडुवर्द्धन नगर की ओर प्रयाण किया। वहाँ के वसुतेज राजा ने किसी निष्कपटी पुरुष को कोशाध्यक्ष बनाने की इच्छा से, मार्ग पर स्वर्ण मुद्राएँ आदि फेंक रखी थी। परीक्षा के लिए राजा ने अपने विश्वसनीय पुरुषों को वहाँ छिपे रहने का आदेश दिया था। उन दोनों व्यापारियों ने किसी मार्ग पर स्वर्णकुंडल देखे। अहो! यह लक्ष्मी स्वयं हमें वरने के लिए यहाँ आयी है इस प्रकार विचार करते हुए, वसुदत्त स्वर्णकुंडल ग्रहण करने के लिए समीप जाने लगा। वसुदत्त को जाते देखकर देव-यश नामक दो व्यापारियों की घटना याद कर मातृदत्त स्वर्णकुंडल लेने से मना करने लगा। देव-यश की कथा इस प्रकार सुनायी - मातृदत्त-वसुदत्त के नगर में ही देव और यश नामक दो व्यापारी रहते थे। वे दोनों सदा साधारण व्यापार करते थे। देव ने पर वस्तु के अदत्तादान का नियम किया, पुनः यश को ऐसा कोई नियम 74
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy