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________________ गया था। इस देश में आया है। आपने बिन विचार कर ही, अपनी कन्या के साथ विवाह कर दिया और इतनी राजसमृद्धि दिलाई। इस धन ने मुझे खुद का चरित्र नही कहने के लिए बहुत डर दिखाया है । आप उससे मेरी रक्षा करे और छुडाये जिससे मैं किसी तीर्थ में जाकर अपनी आत्म शुद्धि करूँगा । राजा भी उसकी बातें सत्य मानते हुए कहने लगा - भद्र! मुझे लूँटकर वह धोखेबाज आराम से निद्रा ले रहा है। तुम किसी दूसरे से यह बात मत करना। मैं शीघ्र ही इस विषय में निर्णय लेता हूँ। पश्चात् धरण, राजा को नमस्कारकर, वहाँ से चला गया। राजा ने सुभटों को बुलाकर आदेश दिया- सुभटों ! तुम प्रातः गुप्तरीति से इस धन को विष्ठाघर में मार देना। राजसेवक भी आदेश स्वीकारकर, प्रातः समय गुप्तरीति से विष्ठाघर में छिपे रहे। भाग्य के योग से, सिरदर्द के कारण धन ने धरण को राजसभा में जाने के लिए भेजा। धरण अपने शरीर की शुद्धि के लिए विष्ठाघर गया। पूर्व में नियुक्त उन सुभटों ने भी तुरंत ही प्रहार कर, धरण को मार दिया। पश्चात् पानी भरनेवाली दासी ने बुंबारव किये। यह वृत्तान्त जानकर, धन भी वहाँ आ गया और मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पडा। अंतिम संस्कार करने के बाद भी, धन देह की सारसंभाल नहीं कर रहा है, यह सुनकर राजा विचारने लगा वास्तव में यह धन निर्दोष और सरल आत्मा है । पुण्य समुद्र ऐसे धन के भाग्य विलास को देखकर, पाप से प्रेरित इस दुर्बुद्धिधारक ने खुद के वध के लिए ही इस प्रकार असत्य बोला था। ऐसा विचारकर, धन के पास गया और भवस्थिति का स्वरूप बताया। पश्चात् धन ने भी सिद्धांत के वचनों से श्रीजिनधर्म का स्वरूप समझाया। एकदिन नगरी में ज्ञानी भगवंत पधारे। राजा ने वंदनकर, धरण की दुष्टताका कारण पूछा। उन्होंनें कहा - राजन् ! सुनो। इस जगत् में सत्यवादी, धर्मी मनुष्य तथा दानी ये सभी धन के समान सर्वप्रिय बनतें हैं। और इन सब से विपरीत स्वभाववालें धरण के समान द्वेषपात्र बनतें हैं। इसमें थोडा पूर्वभव का वैर भी कारण है। अब वह धरण मरकर इसी नगर में चांडाल की पुत्री बनी थी। यौवन अवस्था में आने के बाद उसका विवाह किया गया था। एक दिन वह पति से झगड़ती हुई उस पर आक्रोश करने लगी। पति के प्रहार करने से वह मर गयी और इसी नगर में वेश्या हुई । सांप के डंसने से आयुष्य पूर्णकर इसी नगर में रूप से दूषित ऐसी धोबी की पुत्री हुई है। वह अपने माता- -पिता को अप्रिय लगती है और अब कष्टपूर्वक समय बीता रही है । धरण की यह दशा सुनकर, धन संसारसागर से अत्यंत विरक्त हुआ । और श्रमणत्व का स्वीकारकर, शीघ्र ही देवलोक गया। असत्यवादी, निर्दयी और क्रोधी ऐसा धरण भी जन्म-मरण रूपी तरंगों से भयंकर इस भवसमुद्र में भ्रमण करेगा । 73 -
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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