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________________ नही था। एकदिन वे दोनों व्यापार के लिए दूसरे नगर जाते हुए, मार्ग पर आभूषण पड़ा देखा। अदत्तादान नियमवाले देव ने उस आभूषण की ओर आँख उठाकर भी नही देखा। देव की लज्जा से, यश ने भी वह आभूषण नही लिया। किन्तु मन में अवधारणकर, यश दूसरे मार्ग से आया और ग्रहणकर अपने घर में छिपाये रखा। यश सोचने लगा - देव महात्मा है और दूसरों की लक्ष्मी पर निर्लोभी है। फिर भी मैं इस लक्ष्मी को समान रूप से विभाजित करुंगा। यश उस आभूषण के धन से नगर के बीच में रही हुई दुकानों से माल रखीदकर ले आया। आय-व्यय का हिसाब करते समय, देव ने उस माल को देखकर यश से कारण पूछा। यश झूठ बोलने लगा। बार-बार देव के आग्रह करने पर, उसने सत्य हकीकत कही। तब देव ने उस माल को अलग किया। यश ने भी वह माल लेकर, अपने घर में रखा। किन्तु उसी रात, चोरों ने उसका सब माल लूट लिया। देव ने कहा - मित्र! चोरीकर लाई हुई वस्तु स्थिर नही रहती है। उससे तुम अदत्तादान (चोरी) का नियम ले लो। यश ने भी यह बात स्वीकार की। दूसरे ही दिन, देशांतर से आये कुछ व्यापारियों ने उनका सब माल खरीद लिया। उससे उन दोनों को दुगुणा लाभ हुआ। उस दिन से लेकर पर धन ग्रहण (अदत्तादान) से विरत, न्यायमार्ग से व्यापार करने में रत, वे दोनों व्यापारी लोक में देवयश नाम से प्रसिद्ध हुए और निर्मल यश तथा लक्ष्मी का उपार्जन करने लगे। इस कारण से चतुर पुरुष न्यायमार्ग से ही धनार्जन करतें हैं। मित्र वसुदत्त! भविष्य में कटु परिणाम देनेवाले ऐसे परधन की इच्छा से क्या प्रयोजन है? मातृदत्त की बातें नही सुनने के समान, वसुदत्त उस स्वर्णकुंडल के समीप गया और ग्रहणकर जाने लगा। उतने में ही सुभटों ने उसे शीघ्र ही पकड़ लिया और उन दोनों की समस्त व्यापार की सामग्री भी स्वाधीन कर ली। मातृदत्त खेद करने लगा। तब उन सुभटों ने कहा - भद्र! शोक मत करो। हमारे साथ राजसभा में चलो। तेरे इस सत्त्व से राजा शीघ्र ही तुझ पर कृपा करेंगे। मातृदत्त ने कहा - यह सब ठीक है, किंतु बंदी बनाये इसे पहले छोड़ दो। हम गाँववासियों के अपराध को क्षमा कर दें। हम दोनों इस विषय में कुछ नही जानते हैं। आखिर राजसभा में हम दोनों का क्या कार्य है? मातृदत्त के वचन से सुभटों ने वसुदत्त को छोड़ दिया। पश्चात् विनय और विभूति के साथ सुभटों ने मातृदत्त को राजसभा ले गये। सुभटों ने राजा से उस घटना का निवेदन किया। तब राजा ने मातृदत्त से पूछा - भद्र! तुम पराये धन पर अनासक्त कैसे हो? मातृदत्त ने भी अपने नियम के बारे में कहा। आनंदित बने राजा ने उसे कोशाध्यक्ष पद पर स्थापित किया और अधिक वेतन देने का निश्चय किया। मातृदत्त भी राजमान्य, बड़ी समृद्धि से युक्त लोक में संमाननीय बना। कालक्रम से आयुष्य पूर्णकर, पुण्य के प्रभाव से 75
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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