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________________ ढोल का स्पर्श किया। अंजन के प्रयोग से उसका नेत्ररोग मिटा दिया। पश्चात् अत्यंत प्रीति से, धन ने उस राजकन्या के साथ विवाह किया। लक्ष्मी से युक्त विष्णु के समान, उस वधू से युक्त धन अर्द्धराज्य प्राप्त कर, सुख रूपी समुद्र में मग्न बनकर उस उपमा को चरितार्थ कर दी। ____ एकदिन सुदर्शन नगर से कोई ब्राह्मण आया था। उसे अपने संबंधि के रूप में पहचानकर, धन अपने महल में ले गया। धन ने खान-पान आदि से उसका सत्कार किया और अपने माता-पिता तथा अपने भाई धरण के कुशल समाचार पूछे। ब्राह्मण ने कहा - जब से माता-पिता ने तेरे शेर के भय के बारे में सुना था, उस दिन से लेकर वे दोनों दिन-रात दुःख में ही बिता रहें हैं। धरण जीवित और नीरोगी है तथा व्यापार संभाल रहा है। यह सुनकर धन चित्त में प्रसन्न हुआ और उसे दक्षिणा दी। बाद में अपने नाम से अंकित मुद्रावाला लेख उसे देकर भेज दिया। ब्राह्मण भी ले जाकर, लेख आदि सर्व सामग्री धन के पिता को समर्पित कर दी। सुदत्त व्यापारी अपने पुत्र के कुशल समाचार तथा उसके अद्भुत भाग्य के बारे में सुनकर, हर्ष से अपने पुत्र का वर्धापन महोत्सव मनाया। तब धरण विचार करने लगा - वह नगर में कैसे आया होगा? क्योंकि तब मैंने वैसी परिस्थिति में ही उस बडे जंगल में छोड़ दिया था। मेरा प्रतिकूल करनेवाले इसने भाग्य से ऐसी संपत्ति कैसे प्राप्त की? कहा भी गया है कि - भाग्य वह कर देता है जिसके बारे में अनुमान भी नही किया जा सकता है और सुव्यवस्थित कार्य को भी बिगाड देता है। यदि धन इधर आयेगा, तो मेरा हलकापन होगा। इसलिए मैं शीघ्र जाकर दूसरे उपाय का प्रयोग करता हूँ, जिससे धन इधर न आ सके। ऐसा विचारकर उसने पिता से कहा - मैं भाई से मिलने के लिए आतुर हूँ। आप मुझे जाने की आज्ञा दे। पिता ने भी आनंद से उसे भेज दिया। धरण सुभद्रनगर आया। धन उसे देखकर आनंद से आलिंगन किया। किन्तु धरण उसकी संपत्ति आदि समृद्धि देखकर खेदित हुआ और सोचने लगा - अहो! धन ने इस संपत्ति के द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि धर्म से ही जय होती है। किन्तु, मैं क्षणमात्र में ही आज इसका विरुद्ध करूँगा। धन भी अपने भाई का लालन-पालन करने लगा। एकदिन धरण एकांत में राजा से मिलकर कहने लगा - देव! राजा हजार आँखवालें होतें हैं। क्या इस धन ने आपको ठग लिया है? जो कुल और शील का बिन विचार कर ही इसे अपनी कन्या दी है। क्या कोई सद्बुद्धि देनेवाला नही था? यदि आप मेरे द्वारा कही गई बातें, इस धन से नहीं करेंगे, तो मैं आपको सत्य हकीकत कहूँगा क्योंकि अन्याय करनेवाले इस असुर से मैं डरता हूँ। राजा ने भी यह बात स्वीकार की। तब धरण ने कहा - राजन्! यह धन हमारे नगर में चांडाल था। विरुद्ध आचरण करने से यह देश से निकाल दिया 72
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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