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________________ अपने स्थान पर चला गया। ___ यह ही पुरंदरयशा है अथवा नही? इस प्रकार कुमार को संदेह हुआ। कुमार ने उसे आश्वासन देकर कहा - भद्रे! तूने जिस निधिकुंडल का नाम उच्चार किया था, वह मैं ही हूँ। तब पुरंदरयशा सोचने लगी - इसकी वाणी सुनकर मुझे हर्ष उत्पन्न हो रहा है। अपर पुरुष मेरे मन को बहला नही सकता है। इस लिए यह ही मेरा पति है, इस प्रकार निश्चयकर कुमार से कहा - मैं नगर में पहुँचने के बाद आप से सब वृत्तांत कहूँगी। क्या आप कुशल है? कुमार ने कहा - तेरे मुख-चंद्र के दर्शन से अब मैं स्वस्थ बना हूँ। इस प्रकार परस्पर आलाप करते हुए रात्रि बीत गयी। प्रातः पद चिह्न के अनुसार वहाँ घुडसवार आ पहुँचे। उन दोनों को देखकर अत्यंत आनंदित हुए। क्रम से सेना सहित प्रयाण करते हुए वे दोनों विजयावतीपुरी आएँ। रत्नचूड राजा ने द्विगुण आनंद से बडे आडंबरपूर्वक उन दोनों का विवाह किया। कितने ही दिन पर्यंत कुमार वहाँ पर रुका। पश्चात् राजा की आज्ञा लेकर पत्नी सहित नगरी में पहुँचा। दोगुन्दुकदेव के समान, निधिकुंडलकुमार ने अनेक लाख पूर्व वर्ष सुखपूर्वक व्यतीत किएँ। __ एकदिन भयंकर युद्ध में, नरशेखर राजा शत्रु के गाढ प्रहार से मरण प्राप्त हुआ। यह समाचार सुनकर, निधिकुंडलकुमार हृदय में अत्यंत दुःखी हुआ। विषयों से तथा राज्य से विरक्त होकर कुमार सोचने लगा - आत्मन्! लक्ष्मी चंचल है, जीवन चपल है, भोग अस्थिर है और संयोग वियोग अंतवाले हैं। माता-पिता आदि में स्नेह सर्व झूठा है। वे कहाँ से आएँ है? और कहाँ जानेवाले है? यह नही जाना जा सकता है। सकल स्नेह इंद्रजाल सदृश है। इस प्रकार शोक संतप्त चित्तवालें कुमार का कितना ही समय बीत गया। एक दिन वहाँ पर श्रीअनंतवीर्य तीर्थंकर ने पदार्पण किया। देवोंने समवसरण की रचना की। तब वनपालक ने आकर राजा से विज्ञप्ति की - महाराज! आपके पुण्य समूह से प्रेरित होकर भगवान् श्रीअनंतवीर्य तीर्थंकर यहाँ पर पधारे है। यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसे पारितोषिक दान दिया। शोक दूरकर, अंतःपुर सहित राजा वंदन करने निकला। समवसरण देखकर, निधिकुंडल राजा ने सर्व राजचिह्न छोड दिएँ। भगवंत को तीन प्रदक्षिणा देकर, वंदनकर यथास्थान पर बैठा। भगवान ने जगज्जीव उपकार के लिए देशना दी। भगवान् की देशना सुनकर, राजा वैराग्यवासित मनवाला हुआ। पश्चात् पुत्र को राज्य सौंपकर, सात क्षेत्रों में धन का उपयोगकर पत्नी सहित राजा ने दीक्षा ग्रहण की। निरतिचार चारित्र का सुंदर रीति से परिपालनकर, वे दोनों सौधर्म देवलोक में पाँच पल्योपम आयुष्यवालें देव युगल बनें। ___ आयुष्य पूर्ण हो जाने से निधिकुंडल देव का जीव, स्वर्ग से च्यवकर महाकच्छविजय के विजया नगर में, महासेनराजा की चंद्राभा देवी की कुक्षि में
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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