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________________ पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। समय पूर्ण होने पर, रानी ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। राजा ने बडे आडंबर से जन्म- महोत्सवकर उसका ललितांग नाम रखा। क्रम से बढ़ता हुआ बहोत्तर कलाओं का अभ्यासकर यौवन अवस्था में आया। इधर पुरंदरयशा का जीव भी देवलोक से च्यवकर उसी विजय के परमभूषणपुर में, पुण्यकेतु राजा की रत्नमाला देवी की कुक्षि में पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुयी। पिता ने उसका उन्मादयन्ती नाम रखा और क्रम से वह यौवन अवस्था में आयी । परंतु उन्मादयन्ती विषयों से पराङ्मुख थी । सखियों के द्वारा बहुत समझाने पर भी वह नही मानती थी । तब माता ने कहा वत्स! वर बिना कन्या शोभा नहीं देती है । पुत्री ने कहा - ज्योतिष्क कला, नभोगामिविमानविनिर्मिति कला, राधावेध कला और विषघ्नगारुडमंत्र कला । इन चारों कलाओं में से, जो एक कला के द्वारा भी मेरे मन को अधिक रंजित करेगा, उसीसे मैं विवाह करुँगी । पुत्री की प्रतिज्ञा सुनकर, राजा ने स्वयंवरमंडप का आयोजन किया और राजपुत्रों को आह्वान किया। समय पर, वें भी आगएँ । राजा ने उनका सत्कारकर निवास स्थान अर्पित किएँ । शिल्पियों ने स्वयंवरमंडप का निर्माण किया जिसमें मणि रत्नमय स्तंभ, स्फटिक पुतली, मंच की श्रेणियाँ, मध्य स्तंभ पर राधा स्थापित किये गए थे। राजकुमार राधावेध करने लगें। किंतु वे कन्या की दृष्टि में हास्यास्पद बनें। इसीबीच ललितांगकुमार ने लीलामात्र से ही राधावेधकर जयपताका प्राप्त की। ललितांग को देखकर राजपुत्री अत्यंत संतुष्ट हुयी। इतने में ही आकाशमार्ग से किसी विद्याधर ने अकस्माद् ही राजकन्या का अपहरण कर लिया। यह देखकर परिवार सहित राजा व्याकुल हो गया । और घोषणा की - इस समय जो कन्या को वापिस लाएगा, मैं उसीसे कन्या का विवाह करूँगा । इसलिए सभी राजकुमार स्वशक्ति के अनुसार प्रयत्न करें। यह सुनकर ललितांग ने कहा- यहाँ पर कोई है, जो मुझे उस दुष्ट चोर का स्थान बता सके। तब दूसरे कुमार ने कहा ज्योतिष्क लग्न से मैं जान सकता हूँ कि राजपुत्री का अपहरण कर्ता विद्याधर अतीव दूर चला गया है। मैं उस स्थान को भी जानता हूँ । यदि कोई मुझे वहाँ पर ले जाये तो मैं उस स्थान को दिखा सकता हूँ। तब किसी तीसरे कुमार ने विद्या के बल से आकाशगामी विमान बनाया। ललितांग तथा दूसरे राजकुमार उसमें बैठ गये। और ज्योतिष्कवेत्ता राजकुमार के निर्देश अनुसार प्रयाण करतें हुए, वे वैताद्यपर्वत के समीप पहुँचे। वहाँ पर विद्याधर तथा राजकन्या को देखा । धनुष्धारी ललितांग ने कहा- तुम विद्याधर होकर कपट से परस्त्रियों का अपहरण करते हो । सिंह नाम धारणकर कुत्ते के समान आचरण करते हो । पश्चात् दोनों परस्पर युद्ध करने लगे। ललितांग ने एक तीक्ष्णबाण से उसके मस्तक पर प्रहारकर यमसदन में पहुँचा दिया । - 43
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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