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________________ हरणकर इसे बनाया है। यह रत्नचूडराजा की पुरंदरयशा कन्या है। कुमार ने खुश होकर उन्हें लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी। कार्य सिद्ध हो जाने से, वे भी अपने नगर लौट आएँ। ___ कुमार ने शुभ मुहूर्त में हाथी, रथ, घोड़े, सुभटों के साथ प्रयाण किया। बीच में महाटवी आयी। कुमार घुड़सवारी करने निकला। घोडे के द्वारा अपहरण किए जाने पर, कुमार वन में भटक गया और रात्रि के समय किसी एकांत स्थल पर बैठ गया। इतने में ही रुदन करती किसी स्त्री का करुणस्वर सुनायी दिया। कुमार उस दिशा की ओर चल पड़ा और गुप्तरीति से छिप गया। वहाँ पर उसने अग्निकुंड के समीप में लाल चंदन से लिप्त, लाल कणवीर की माला धारणकर कापालिक के द्वारा मंडल में स्थापित की गयी किसी सुंदर कन्या को देखा। छोटी तलवार से युक्त योगी ने उस कन्या को बालों से ग्रहणकर घोषणा की - हे देवी भगवती! हे त्रिशूलधारी! हे शिष्यवत्सला! इस कन्या की बलि ग्रहण करो। पश्चात् कापालिक ने कन्या से कहा - भद्रे! अपने इष्ट देव का स्मरण कर लो क्योंकि शस्त्रपात की अवधि तक ही तेरा जीवन है। कन्या ने भी धैर्य धारणकर कहा - इस अवस्था में, मैं किसका स्मरण करूँ? जहाँ पर आप जैसे योगी है, वहाँ पर किसका शरण लिया जा सकता है? फिर भी सर्वप्राणियों पर वत्सलतावालें वीतराग भगवान् ही मेरे शरण है। तथा पिता द्वारा अर्पित और मेरे द्वारा मन से स्वीकृत नरशेखर राजा का पुत्र निधिकुंडल कुमार मेरा शरण हो। अपना नाम सुनकर, कुमार शीघ्र ही वहाँ पर आ पहुँचा और कापालिक को केशों से पकड़कर कहने लगा - रे पापिष्ठ! इस कन्या को मारने की इच्छा करते हुए, तूंने खुद के ही विनाश को आमंत्रण दिया है। कुमार की कठोर वाणी सुनकर, योगी भयभीत हुआ और कहा - उत्तम पुरुष! मेरे कार्य में विघ्न मत करो। मैंने पूर्व में ज्वालिनी देवी की आराधना की थी। बत्तीस लक्षणों से युक्त इस दुर्लभ कन्या को प्राप्त की है। विधि पूर्ण हो जाने के पश्चात् मैं विद्या सिद्धकर तेरा वांछित पूर्ण करूँगा। कुमार ने क्रोधित होकर कहा - मूढ! योगियों का वेष पहनकर, चांडाल प्रायोग्य कार्य करते हुए लज्जित नही होते हो? उस मूढ विद्या को सिद्धकर क्या करोगे? अज्ञ! तुच्छ कार्य के लिए चिर समय तक पालन कर रहे अपने व्रत का विनाश मत करो। क्या तूने नही सुना है कि प्राणीघात गहन दुःख का कारण है? इसलिए तुम इस पाप से रुक जाओ। यह ही मेरा उपकार होगा। कुमार की मधुर वाणी से कापालिक ने प्रतिबोध पाकर कहा - भाग्यशाली! तूने दुर्गति की ओर प्रयाण करते मुझे बचा लिया है। मैं अपने गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करूँगा तथा पाप से विरत होकर अपनी साधना करुंगा। यह रत्नचूडराजा की पुत्री है। आप ही कन्या को वहाँ सुरक्षित पहुँचा देना इस प्रकार कहकर कापालिक 41
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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