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________________ सेना के साथ प्रयाण किया। आनंदित चित्तवाला कुमार शीघ्र ही प्रयाण करते हुए पोतनपुर आया। उसके आने के समाचार सुनकर, शत्रुजय राजा संमुख आया। सेवक बनकर, कुमार ने पिता के चरणकमल में नमस्कार किया। पुत्र को प्राप्तकर, पिता भी संतुष्ट हुआ। अपने पुत्र के चरित्र, पराक्रम, प्रभुता आदि देख और सुनकर, राजा खुद को पुत्रवालों में अग्रगणनीय मानने लगा। राज्य के उचित जानकर, शत्रुजय राजा ने उसका राज्याभिषेक किया और महोत्सव मनाया। राजाओं में श्रेष्ठ ऐसा शत्रुजय राजा, अब विषयभोगों से विरक्त होने लगा। उस चतुर राजा ने शीलन्धर गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की। राजर्षि ने क्रम से, मूल से ही कर्म रूपी वृक्ष को उखाड़कर, केवललक्ष्मी प्राप्त की और शीघ्र ही मोक्ष पधारे। कमलसेन राजा भी शुक्लपक्ष के चंद्र समान राजलक्ष्मी से बढ़ता हुआ, पृथ्वी को एकछत्री बनायी। वह पृथ्वीतल पर विरोध रहित हुआ। शाखाओं से फैले हुए वडवृक्ष के समान, वह भी पुत्रों से विस्तृत हुआ। एकदिन वर्षाकाल के समय, नदी में क्रीड़ा करने की इच्छा से, कमलसेन राजा, नगर से बहार निकला। नदी का पूर, बहुत दूर तक पृथ्वी पर फैल रहा था। प्रवाह के समूह मिलने से, वह नदी प्रतिक्षण बढ़ रही थी। उसकी बड़ी लहरें तट पर रहे वृक्षों को गिरा रही थी। बाद में नदी वापिस अपनी प्रकृति से स्थिर बन गयी। यह देखकर, राजा अपने हृदय में सोचने लगा-मनुष्यों की संपत्ति आदि का विस्तार यह सब कुछ अनर्थ का ही कारण है। मनुष्य भव में लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह जीव नदी के समान है और यह लक्ष्मी नदी के पूर के समान है। जो मनुष्य कृत्य-अकृत्य का विवेक प्राप्त कर लेता है, वह उसके वश नहीं होता है। अब इस चंचल लक्ष्मी से, मुझे काम नहीं है। जहाँ पर अभिमान का सुख है, पुनः भोग साधारण है। वे प्राणी धन्य हैं, जिन्होंने बिजली के समान अस्थिर राजलक्ष्मी को छोड़ दी है, और मैं शहद पर मधुमक्खी के समान अभी भी इस पर आसक्त हूँ। इस प्रकार का विचार कर, संवेगरंग से अपने मन को रंगकर, कमलसेन राजा ने अपने पुत्र सुषेण का राज्याभिषेक किया। स्वयं ने गुणसेना आदि अंतःपुर के साथ संयम ग्रहण किया। आयुष्य पूर्णकर कमलसेन राजर्षि और गुणसेना ब्रह्मकल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुए। पूर्वभव के संस्कार से, वे दोनों वहाँ प्रीतिपूर्वक रहने लगे।। ___ इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्र में कमलसेन राजर्षिचरित्र का द्वितीय भवग्रहण संपूर्ण हुआ। तृतीय भव सूरसेन देश में मथुरा नगरी है। वहाँ पर तीनों शक्तियों से युक्त, मेघराजा न्यायपूर्वक राज्य कर रहा था। उसको सुंदर गुणों से युक्त, मोतीयों के हार के 35
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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