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________________ था। वच्छदेश के राजा समरसिंह ने, दूत के द्वारा कमलसेन को आदेश दिया कि-वंश परंपरा से मिले इस पृथ्वी के विशाल राज-ऐश्वर्य को भी तुम दुःखपूर्वक भोगोगे, क्योंकि लक्ष्मी, शौर्य के आधीन होती है । तुम मुसाफिर होते हुए भी, दूसरे के राज्य को प्राप्तकर, खुश हो रहे हो और जगत् में माननीय मेरी आज्ञा भी नहीं मान रहे हो। इसलिए इस राज्य को छोड़कर भाग जा, अन्यथा मैं आ ही रहा हूँ, तुम भी युद्ध के लिए तैयार हो जाओ । दूत के वचनों को सुनकर, कमलसेन राजा ने कहा- दूत! तुम शीघ्र ही अपने स्वामी के पास जाकर कहना - यह सत्य है कि मैं स्वयंभू राजा हूँ और दूसरे की राजलक्ष्मी को भोग रहा हूँ। तुम समरसिंह होकर समरजंबूक (शियाल) मत बनना । इस प्रकार दूत को कहकर विदा किया। बाद में कमलसेन ने प्रयाण के लिए नगारा बजाया । प्रतिपक्षी राजा भी सामने आ गया। भयंकर युद्ध चालू हुआ। दया- परायण चंपा के राजा कमलसेन ने कहानिरपराधी प्राणियों का संहार करनेवाले इस युद्ध का क्या प्रयोजन ? उससे बलाबल जानने के लिए हम दोनों ही परस्पर युद्ध करें। समरसिंह ने भी यह स्वीकार किया। उन दोनों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला। कमलसेन के द्वारा गदा से प्रहार करने पर, समसिंह अचेतन के समान बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। शीत आदि उपचार से, उसे होश में लाया गया ! तब अंगदेश के राजा ने कहा- युद्ध से मैंने तेरी भुजाबल जान ली है। इसलिए वापिस शस्त्र उठाओ और मेरे साथ युद्ध करो। यह सुनकर समरसिंह भी आश्चर्यचकित हुआ और साहसवान् कुमार से कहने लगा- अहो ! तेरा पराक्रम! अहो ! विश्व में अद्भुत ऐसा यह तेरा धैर्य! मान रूपी प्रताप से रहित बने मुझे राज्य का कोई प्रयोजन नहीं है । किन्तु मेरी विज्ञप्ति है कि तुम मेरी आठों कन्याओं के साथ राज्य भी ग्रहण कर लो । तेरी आज्ञा से, अब मैं अपना परलोक का हित करना चाहता हूँ। इस प्रकार का आग्रहकर समर राजा ने अपनी आठ कन्याएँ कमलसेन को दी और स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की। कमलसेन अब दो राज्य तथा नव वधूओं का स्वामी बन गया था। चंपानगरी वापिस लौटकर, अनुकंपा से शत्रुओं को छोड़ दिया। इधर, पोतनपुर के राजा शत्रुंजय ने भी अपने पुत्र कमलसेन के समाचार सुने । शत्रुंजय राजा ने उसके पास मंत्री भेजे। वे भी कुमार के समीप जाकर कहने लगे-स्वामी! आपके प्रवास के बाद पिता को जो दुःख हुआ था, वह हम एक जीभ से कहने में असमर्थ हैं। अब आपके कुशल समाचार प्राप्तकर हम स्वस्थ बने हैं। आपके विरह रूपी दावानल से पीड़ित माता-पिता को दर्शन देकर, अमृत से सिंचित के समान शांत करें। मंत्रियों के वचन सुनकर, कुमार आतुर बना और प्रमाद छोड़कर बहुत-सी 34
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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