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________________ समान निर्मल, सौभाग्यवती मुक्तावली नामक अर्धांगिनी थी। चमकती बिजली से युक्त मेघ के समान, मुक्तावली देवी से युक्त मेघराजा प्रजाओं के संपूर्ण दुःख, शोक रूपी ताप को दूर कर दिया था। एक दिन महल में प्रवेश करते समय, मेघराजा ने चंद्रमुखी ऐसी अपनी पत्नी को आँसु बहाते देखकर कारण पूछा। उसने कहा-यदि लीला से उछल-कूद करता बालक गोद में न खेल रहा हो तो इस रूप, सौभाग्य आदि संपदा से क्या प्रयोजन है? तब मेघराजा ने कहा-प्रिये! यह सब भाग्य के आधीन है? दुर्लंघनीय भवितव्यता का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है। मुक्तावली रानी ने कहा-फिर भी कोई उपाय करें। क्योंकि भाग्य के योग होने पर, प्रयत्न से फल मिल सकता है। मणि, मंत्र, औषध आदि की अचिंत्य महिमा है अथवा देवता की आराधना से भी वांछित फल की प्राप्ति हो सकती है। मेघराजा ने देवी के वचनों को अच्छी प्रकार से विचारकर कहा-शोक छोड़ दो, मैं तेरी इच्छा पूर्ण करूँगा। देवी को आश्वासन देकर, साहसवान् राजा कृष्णचतुर्दशी की रात्रि में, श्मशान गया। वहाँ मेघराजा ने ऊँचे स्वर में कहा-यहाँ उपस्थित भूत, पिशाच आदि मेरे पवित्र वचनों को सुनें। मैं तुम्हें मेरा मांस दे रहा हूँ, उसके बदले में मुझे पुत्र देना। कोई पिशाच उसके शब्द सुनकर कहने लगा-राजन्! मांस से नहीं किन्तु अपना सिर देकर पुत्र प्राप्त कर सकते हो। राजा ने कहा-मैं अपना सिर भी देने को तैयार हूँ। इस प्रकार कहते हुए, राजा ने साहस सहित हाथ मे तीक्ष्ण छरी लेकर गले पर वार करने लगा। पिशाच ने राजा का हाथ पकड़ लिया और कहा-मैं तेरे सत्त्व से खुश हूँ। तुझे पुत्र होगा। अपने हृदय में किसी भी प्रकार का संशय मत करना। इसकी प्रतीति यही है कि निद्राधीन देवी आज, रात के समय सिंह को स्वप्न में देखेगी। यह सुनकर मेघराजा खुश हुआ और वापिस अपने महल लौट आया। कमलसेन का जीव भी ब्रह्मकल्प से च्यवकर, मुक्तावली की कुक्षि में, पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। तब देवी ने रात्रि के समय सिंह को स्वप्न में देखा। रोहणपृथ्वी जिस प्रकार अच्छे मणियों को धारण करती है, उसी प्रकार देवी ने गर्भ धारण किया। शुभ दिन में, देवी ने पुत्र को जन्म दिया। उसके जन्म के हर्ष से मानो मेघ ने पानी की धाराओं से वर्षा की हो! देव ने हमको सिंह स्वप्न से सूचितकर इस बालक को दिया है, ऐसा सोचकर हर्षपूर्ण हृदयवाले राजा ने उसका देवसिंह नाम रखा। उज्जयिनी नगरी में विजयशत्रु राजा राज्य करता था और उसकी कनकमंजरी रानी थी। गुणसेना का जीव भी स्वर्ग से च्यवकर, मानस सरोवर में हंसी के समान, कनकमंजरी की कुक्षि में पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई। उसका नाम 36
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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