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________________ धन्य-चरित्र/65 ही हुआ, जो इस बालक को भेज दिया। इसीलिए तो वे श्रेष्ठी शीर्ष से उतरा हुआ किसी के भी सिर पर गिरे-इस कुटिल बुद्धि से धन को देकर अपने आप को विचक्षण मानते हुए अपने-अपने इष्ट क्रयाणक को ग्रहण करके चले गये। सभी को अपना स्वार्थ प्यारा होता है। किसी ने भी इसकी दया नहीं विचारी। अतः इसने सभी की दुर्जनता को विलसित देखकर अपनी विचक्षणता के द्वारा मौन धारण करके अपना इष्ट ग्रहण कर लिया। क्योंकि : दुर्जनानां मर्मकथने स्वस्यैव दुःखाय भवति। __ अर्थात् दुर्जनों को मर्म का कथन करना ही दुःख के लिए होता है। इस नीति वाक्य का स्मरण कर वह वस्तु लेकर घर चला गया। धन्य का तो स्व-भाग्योदय होने से अनुपम माल हाथ आया। इसमें किसी का कोई उपकार नहीं है। क्योंकियद् दुर्जनैरुद्वेगाय कृतं तत् स्वभाग्योदयेन परमसुखाय जातम् । दुर्जनों द्वारा उद्वेग के लिए किया गया कार्य स्व भाग्य के उदय से परम सुख के लिए होता है। उस सुखोदय को देखकर कोई दुर्जन इसके उदय को नहीं सह सकने के कारण मुझे दुर्बुद्धि देने के लिए आया था। लेकिन मेरा अनीति में प्रवर्तित होना युक्त नहीं है, क्योंकि अनीति से इस लोक में राज्य का नाश होता है और परभव में दुर्गति का पात्र होता है। यदि पूर्व में सभी महाजनों तथा मेरे भी द्वारा तेजमतूरी पहचान ली जाती, तो किसी की भी देने की प्रवृत्ति नहीं बनती। अतः धन्य ने अपने भाग्य के अनुरूप पाया है। भाग्योदय से प्राप्त धन धन्य द्वारा भोगा जाना ही युक्त है, दूसरे के द्वारा नहीं। अतः मैं भी इसे आज्ञा देता हूँ, कि सुखपूर्वक स्वेच्छा से उपभोग करे।" इस प्रकार राजा ने सभा के समक्ष अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। धन्य ने भी उठकर "महाराज की मुझ बाल पर महती कृपा"-इस प्रकार कहकर प्रणाम किया। राजा पुनः उसके गुणों से रंजित होता हुआ सभ्य-जनों के आगे धन्य के सौभाग्य आदि गुणों की प्रशंसा करने लगा-'हे लोगों! देखो! बालक होते हुए भी धन्य की बड़ों के समान पक्व-प्रज्ञा देखो। इसकी दक्षता तो देखो। जो नित्य माल के क्रय-विक्रय में कुशल हैं, अनेक देशों में परिभ्रमण करने से अनेकों मालों की उत्पत्ति-निर्णय के विज्ञान में निपुण हैं, परिणत वयवाले हैं, उन महा-इभ्यों द्वारा भी जो ज्ञात नहीं हुआ, वह सभी इसने जान लिया। अतः मेरे नगर के नागरिकों के बीच यह धन्य ही धन्य है। ऐसे पुरुषों से ही यह पृथ्वी रत्नगर्भा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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