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________________ धन्य-चरित्र/52 जो बहुत काल तक विनय आदि उपक्रम-विधि के द्वारा अभ्यस्त होने से आकण्ठ विद्या का अध्ययन करके उसके निर्गमन के डर से मानो उघाड़े मुख नहीं बोलते थे। जो बाह्य व अभ्यन्तर रज की शंका से ही बिना प्रत्युपेक्षा किये भाण्ड आदि को ग्रहण नहीं करते थे, न ही रखते थे। जो देखकर पवित्रित भूमि पर चरण धरते थे। सत्य भाषा के साथ प्रथम व चतुर्थ भंग युक्ति द्वारा मधुर, निपुण आदि अष्ट गुण से पवित्रित जिनाज्ञा–युक्त वाक्य बोलते थे। सम्यक्-शास्त्र के अनुकूल मनोयोग-पूर्वक उस आचार का आचरण करते थे। ज्यादा क्या कहें? सर्व-पवित्रता से युक्त वे मुनि सर्व-जनों द्वारा श्लाघनीय थे। और भी, तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ रूप अष्ट-प्रवचन -माता की निरन्तर आराधना करते थे। इस प्रकार के कालक मुनि शासन को शोभित करते थे। उनके गुणानुरागी व्यक्ति तो सदैव उन मुनि की विशेष रूप से पूजा-सत्कार आदि करते थे। तब उनके उत्कर्ष को न सह सकने के कारण रुद्राचार्य हृदय में खेद का अनुभव करते थे, क्योंकि ईर्ष्यालु-जन गुणों के स्फुरायमान होने से दीप्तिमान बने अन्य जनों को देखने में समर्थ नहीं होते, बल्कि उसके अपकार के चिंतन से युक्त होते हैं। कहा भी है शलभो दुर्जनो दीप्तिमतिं प्रदीपशिखां दृष्ट्वा स्वकीयं प्राणं दत्वाऽपि प्रदीपार्चि किं नाऽपहरति? अर्थात् दुर्जन शलभ दीप्तिमती दीपशिखा को देखकर क्या अपने प्राण देकर भी दीपक की लौ का अपहार नहीं करता? करता ही है। एक बार वहाँ पर रुद्राचार्य के पास कुसुमपुर से श्री संघ द्वारा प्रेषित मुनि-युगल आये। रुद्राचार्य को वंदन करके बैठ गये। तब रुद्राचार्य ने उनके आने का कारण पूछा। उन दोनों ने कहा-"स्वामी! इस समय एक षट्तर्की भिदुर नामक विद्वान वादी प्रत्येक ग्राम के बहुत से वादियों को जीतते हुए पाटलिपुत्र आया है। अब वह तार्किक विजयोन्मत्त बनकर जैन-मुनियों को भी जीतने की इच्छा रखता है, क्योंकि अत्यधिक दग्ध इंधन की अग्नि पत्थर को जलाने में भी समर्थ होती है। वहाँ कोई भी वैसा नहीं है, जो उसके साथ वाद करके उसका निर्घाटन करे। अतः उस दुर्वादि को जीतने के लिए आपको शीघ्र ही वहाँ आना चाहिए। इस प्रकार के वचन श्रीसंघ द्वारा आज्ञापित हैं और अनुल्लंघ्य सङ्घशासनं कर्त्तव्यं भवति। अर्थात् संघ-शासन का कर्त्तव्य अनुल्लंघ्य होता है।" इस प्रकार आगन्तुक मुनियों के मुख से सुनकर प्रसन्न होते हुए विद्यासमुद्र
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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