SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/51 में नदी के तुल्य थे। सदा मासखमण आदि अति दुष्कर तप में तप्तर रहते थे। जिन्होंने अपने शरीर को अपने द्वारा बनायी गयी तप-श्री द्वारा मांस-रक्त को लेकर योग व कार्मण योग से वशीकृत करके कृश कर दिया था। जो मुनि कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, लघु सिंह निष्क्रीड़ित, बृहत् सिंह निष्क्रीड़ित तप, वर्धमान आयम्बिल तप, भिक्षु प्रतिमा, भद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा आदि अनेक तपस्याएँ करते थे। इस प्रकार जिनशासन के उद्योतकारी वे महातपस्वी दूसरे मुनि थे। तीसरे सोमिल नामक मुनि नैमित्तिकों में अग्रणी थे। अष्टांग निमित्त शास्त्रों में कुशल, त्रय हस्त-रेखाओं की तरह तीनों कालों के स्वरूप को अमोघ रूप से जानते थे। जैसे(1) अंतरिक्षम् आकाश में रहे हुए भावी शुभाशुभ, चेष्टा, कपि-हसित, गन्धर्वनगर, उल्कापात, ग्रह आदि के ज्ञापक थे। भौमम्-भूकम्प आदि के ज्ञाता थे। अङ्ग विद्या-बाँये तथा दाहिने नेत्र आदि अंग की स्फुरणा का तथा जिस अंग को स्पर्श करते हुए कोई प्रश्न पूछता-उसमें फलाफल के ज्ञाता थे। स्वरोदयम्-सूर्य-स्वर तथा चन्द्र-स्वर एवं इनके समान अनेक प्रकार के स्वरों को जाननेवाले, उन स्वरों को उठाने आदि से सत्-तत्त्व-स्वरूप के निरूपण में पारंगत थे। चूडामणिम्-पूर्व जन्म कृत पाप-पुण्य को जानने का जिनके पास विज्ञान था। शकुनम्-दुर्ग आदि पक्षी-स्वर, गति, चेष्टा आदि एवं ज्योतिष्क ग्रह की गति के ज्ञाता थे। सामुद्रिकम्-पुरुष-स्त्री में रहे हुए शुभाशुभ लक्षणों के ज्ञाता थे तथा धूम, ध्वज, सिंह आदि आयानों के ज्ञाता थे। (8) शुभाशुभ फल के सूचक स्वप्नों के ज्ञाता थे। इस प्रकार अष्टांग-निमित्त शास्त्रों में सर्वत्र अमोघ वचन युक्त, राजा मंत्री आदि को प्रतिबोधित करनेवाले इस प्रकार के तीसरे सोमिल नामक मुनि थे। चौथे कालक नाम मुनि थे, जिन्होंने अति गाढ़ दुष्कर क्रिया द्वारा तीन जगत के कण्टक रूप प्रमाद शत्रु को जीत लिया था। जो ईर्यासमितिपूर्वक साढ़े तीन हाथ भूमि सामने देखते हुए उपयोगपूर्वक मानो नरक में रहे हुए जीवों के उद्धार की चिंता करने के समान नीचे मुख करके धीरे-धीरे विचरण करते थे।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy