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________________ धन्य - चरित्र / 28 उद्गम में हेतु है, बीज से ही अंकुर प्रस्फुटित होता है, बादलों से ही सुभिक्ष-काल की वर्षा होती है, धर्म से ही मनुष्यों की जय होती है, वैसे ही यह भी निश्चित रूप से जान लो कि हमारे घर में भी धन्य के भाग्य से ही धन की वृद्धि हुई है । जिस प्रकार का भाग्य और सौभाग्य, जिस प्रकार की बुद्धि की विशुद्धता पुत्र में है, वैसी क्या अन्य किसी में देखी है? कहीं भी नहीं है। हे पुत्रों ! अगर तुम्हे मेरे वचनों पर विश्वास नहीं है, तो मेरे द्वारा अर्पित धन से अपने-अपने भाग्य की परीक्षा कर लो। समान उद्यम होने पर भी भाग्यानुसार ही फल प्राप्त होता है। तालाब के पूर्ण रूप से भरे होने पर भी घट - मात्र जल ही घड़े में आता है।" इस प्रकार श्रेष्ठी के कहे जाने पर आरोग्य को चाहनेवाले की तरह वैद्य द्वारा उपदिष्ट और इष्ट औषधि की तरह उसके वचनों को पुत्रों ने स्वीकार किया । श्रेष्ठी ने व्यवसाय के लिए चारों ही पुत्रों को तीस-तीस मासा सोना देकर इस प्रकार कहा - " हे पुत्रों ! इस स्वर्ण को लेकर अलग-अलग दिनों में व्यवसाय करके अपने - अपने भाग्य के अनुसार लाभ लेकर उससे प्राप्त धन द्वारा कुटुम्ब को भोजन कराना सबसे बड़े पुत्र ने तीस मासा सोने के बराबर धन लेकर व्यापार में लगा दिया। उसके द्वारा बहुत ज्यादा उपाय करने पर भी बहुत थोड़ा लाभ हुआ, क्योंकि प्राणिनां कर्मोदयसदृशं फलं न तु प्रक्रमनुरूपम् । अर्थात् प्राणियों के कर्मोदय के सदृश ही फल प्राप्त होता है, पराक्रम के अनुरूप नहीं । उसने भूख को रोकनेवाले चने तथा तीन रत्ती तेल लाकर अपने कुटुम्ब को भोजन करवाया। दूसरे दिन दूसरे भाई ने अपने द्वारा उपार्जित द्रव्य से चवला नामक धान्य लाकर कुटुम्ब का पोषण किया । तीसरे दिन तीसरे भाई ने उस द्रव्य से व्यवसाय करके उसके द्वारा प्राप्त धन से जैसे-तैसे कुटुम्ब को भोजन कराया। चौथे दिन पिता ने करोड़ों के धन का अर्जन करने को तैयार धन्य को तीस मासा सोना दिया । धन्य भी पिता द्वारा प्रदत्त सोना लेकर आषाढ़ के मेघ की तरह धन रूपी जीवन को अर्जित करने के लिए चतुष्पथ रूपी सागर को प्राप्त हुआ । वहाँ शुभ शकुनों द्वारा प्रेरित वह महा - इभ्य, महा-ईश्वरों के बाजार में भाग्यवशात् व्यवसाय के लिए गया । उस समय वह महेश्वर नौकर के द्वारा लाये गये अपने मित्र के बंद पत्र को खोलकर मौनपूर्वक पढ़ रहा था । पत्र में लिखा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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