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________________ धन्य-चरित्र/231 कौन जानता है? यह भट मुझे कहाँ ले जायेंगे? मेरा तो अपना ही शस्त्र अपने खुद के उपघात के लिए हुआ। न जाने, क्या होगा?" इस चिंता में दिग्मूढ़ होकर कुछ भी बोलने में समर्थ नहीं हुआ। इस प्रकार स्थान-स्थान पर रथ को रखते हुए चढ़ने-उतरने आदि क्रियाओं को करते हुए तीसरे दिन उज्जयिनी ले जाकर राजा चण्ड प्रद्योत के आगे पेश किया। प्रद्योत राजा ने स्वयं उठकर आदर-सहित रथ से उतारकर मीठे वचनों के द्वारा आश्वस्त करके हृदय से आलिंगन करके समान आसन पर बैठाकर कहा- "हे वत्स के स्वामी! तुम अपनी चिंता मत करो। इस घर को अपने घर के समान ही मानो। मैंने किसी दुष्ट अभिप्राय से तुमको यहाँ नहीं बुलवाया है, क्योंकि पूर्व में ही मैंने तुमको पुत्र के समान मान लिया है। आज भी मेरे मन में वही भाव तुम्हारे लिए हैं। अतः चिंता छोड़कर तुम सुखपूर्वक यहाँ रहो। मेरे द्वारा जो छलपूर्वक तुम्हें यहाँ बुलवाया गया है, उसका कारण सुनो। मेरे वासवदत्ता नाम की एक पुत्री है। उसने अपने चित्त की प्रसन्नता के साथ अनेक शास्त्र-कलाएँ सीखीं। पर एकमात्र संगीत-शास्त्र की कला में वह न्यून है। उसने मुझसे कहा कि संगीत शास्त्र में निपुण अध्यापक को मेरे लिए बुलवाइए। उसके कथन को सुनकर जब मैंने समस्त सुधी सभाजनों के सामने अध्यापक की गवेषणा के लिए बात कही, तो जो-जो शास्त्र-विशारद तथा अनेक देशों के देशाटन से चतुरता को प्राप्त चारणादि हैं, उन सभी के द्वारा तुम्हारी ही प्रशंसा करते हुए कहा गया कि अभी तो एकमात्र उदायनराज ही संगीत-शास्त्रों में तथा रस-शास्त्रों में अद्वितीय है। यह सुनकर मैंने विचार किया कि अगर उसे बुलाने के लिए प्रधान-पुरुषों को भेजा जाये, तो वह भी अपने राज्य में रहते हुए सुखमग्न मेरे आदेश को माने या न माने। कौन स्वतंत्रता को छोड़कर पर के अधीन रहना पसंद करेगा? मेरा तुमसे कोई विरोध नहीं है। मैं तुम्हारे साथ युद्ध करने में भी समर्थ नहीं हूँ, क्योंकि मैंने तो पहले ही तुम्हे अपना पुत्र मान लिया है। पुत्री की इच्छा विफल न हो, इसलिए मुझे यह छल करके तुम्हें बुलाना पड़ा। अन्य कोई बात नहीं है। अतः अपने ही घर की तरह यहाँ सुखपूर्वक रहकर उसे आप पढ़ायें। पर वह पर्दे के अन्दर रहकर पढ़ेगी, क्योंकि वह काणी है। अतः लज्जा से वह अपना मुख किसी को भी नहीं दिखाती है। अतः यवनिका में ही रहेगी।" इस प्रकार कहकर बहुमानपूर्वक खान-पान-वस्त्र-मानादि की व्यवस्था अपने समान करवाकर वत्सेश को अपने समान ही रखा। ज्योतिष को पूछकर शुभ दिवस में शास्त्र-पठन के मुहूर्त का निर्णय करके राजा ने वासवदत्ता से कहा- हे पुत्री! अमुक दिन तुम्हारा संगीत-शास्त्र का पठन-कार्य प्रारम्भ होगा।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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