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________________ धन्य-चरित्र/232 पर तुम गुरु के मुख को नहीं देखना, क्योंकि समस्त शास्त्रों में विशारद भी वह चन्द्रमा के कलंक की तरह कर्म-दोष से कुष्ठ रोग से पीड़ित है। राजवंशी लोगों के लिए नीति में कुष्ठी का मुख देखना निषिद्ध है। अतः पर्दे के अन्दर रहकर ही तुम्हें पढ़ना चाहिए। इस प्रकार उसे समझाकर शास्त्र का प्रारम्भ करवाया। प्रतिदिन उदायन वासवदत्ता के आवास में जाकर पर्दे में रही हुई वासवदत्ता को संगीत-शास्त्र के मर्म सिखाने लगा। वह भी विनय सहित अपनी बुद्धि से शास्त्र के मर्म को सीखने लगी। उदयन भी उसकी प्रतिभा-पटुता को देखकर उत्साहपूर्वक पढ़ाने लगा। __एक बार गान्धर्व-शास्त्र को पढ़ते हुए ताल, मान, मात्रा, लय, विभाव, अनुभाव, अलंकार आदि रसों की उत्पत्ति के समय अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से भी सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा ग्राह्य होने से दो-तीन-चार बार कहने पर भी वासवदत्ता विशद रीति से ग्रहण करने में अशक्य होती हुई बार-बार पूछने लगी। तब वत्सराज भी बार-बार कहने के श्रम से श्रान्त होते हुए क्रोध सहित तिरस्कार करते हुए कहने लगे-“हे काणाक्षि! नेत्र के साथ तुम्हारी बुद्धि भी नष्ट हो गयी है। आँख के फूट जाने से क्या हृदय भी फूट गया है? हे शून्य-चित्तवाली! मेरे बार-बार बताने पर भी तुम क्यों नहीं धारण करती हो?" इस प्रकार के अध्यापक के वाक्यों को सुनकर कुमारी भी क्रोधित होकर बोल उठी-"जिन स्वामी ने मेरी मंद-बुद्धि के कारण धारणा की अपटुता को देखकर आक्रोशयुक्त वचनों के द्वारा शिक्षा दी है, वह तो मैंने मस्तक पर धारण कर ली है। यह तो मेरा ही दोष है। परन्तु काणाक्षि कहकर जो कलंक दिया है, ऐसा कहना आप जैसों के लिए युक्त नहीं है। अतः आज के बाद कभी भी ऐसे वचन न कहें। आँखों का काणापन तो पूर्वकृत पाप-कर्मों के उदय से होता है, क्योंकि - षष्टिमिनके दोषा अशीतिमधुपिङग्ले। टुण्टमुण्टे शतं दोषाः काणे संख्या न विद्यते ।। अर्थात् बौने में साठ, पीलिए के रोगी में अस्सी, कोढ़ी में सौ दोष होते हैं और काणे व्यक्ति में तो दोषों को गिना ही नहीं जा सकते। बिना पाप-कर्म के उदय के काणाक्षि का दोष सहने में कौन समर्थ हो सकता है? अपने पापोदय से जन्य कर्म-विपाक को अनुभव करते हुए भी जो दूसरों में असत् दोषों का उद्भावन करता है, वह कापुरुष होता है। आपके द्वारा पूर्व में भी अन्य जन्मों में कितने ही असत् कलंक दिये गये होंगे, जिससे कि कर्मोदय से इस भव में कुष्ठिपना प्राप्त हुआ है, जिससे कि मुख देखने में भी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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