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________________ धन्य-चरित्र / 180 आपके आदेश से पुरुषोत्तम धन्य ने बुद्धि की लीला - मात्र से विवाद नष्ट कर दिया तथा परस्पर प्रीति - लता को बढ़ाया है। हमारे कलह का नाश हुआ ।" तब राजा के द्वारा विदा किये गये वे महा-इभ्य वहाँ से निकलकर राजा को नमस्कार करते हुए अपने-अपने घर चले गये । धन्य की प्रतिभा, भाग्य व कला से हरण किये हुए हृदयवाले होकर उन इभ्यों ने घर जाकर परस्पर विचार करके रूप और लक्ष्मी से युक्त अपनी छोटी बहिन लक्ष्मीवती को धन्य के साथ परिणय सूत्र में बंधवा दिया। महा-महोत्सव के साथ चारों ने एक-एक करोड़ सुर्वण भी दिया । उधर इसी नगर में सदा कृषि आदि कर्मों में निमग्न रहनेवाला धनकर्मा नामक वणिक रहता था। उसके पापानुबंधी पुण्य के उदय से अपरिमीत धन था, पर वह महा—कृपण था। उसकी विपुल लक्ष्मी भी न त्याग के योग्य थी, न भोग के योग्य । नपुंसक की स्त्री की तरह केवल घर की शोभा के लिए थी। एक बार कोई स्तुति - पाठक अपनी जाति के सम्मेलन में गया । वहाँ वे सभी स्तुति - पाठक अपने-अपने बुद्धि-कौशल की प्रशंसा करने लगे। किसी ने कहा- "मैंने अमुक देश के अधिपति को रंजित करके धन ग्रहण किया ।" अन्य किसी ने कहा - "अमुक देश का अधिपति महा- कंजूस है । मैंने उसे भी रंजित करके धन प्राप्त कर लिया।” दूसरे किसी ने कहा - "अमुक राजा का मन्त्री समस्त शास्त्रों का पारगामी है, सभी मेधावियों मे सबसे परम है, अनेक वादि - वृन्द को बुद्धि से जीतकर भेज दिया है, पर धन तो देता ही नहीं है । गुरु प्रसाद से मैंने उसे जीतकर प्रसन्न कर लिया और महान प्रसाद प्राप्त किया ।" इस प्रकार परस्पर बोलते हुए किसी स्तुति - प - पाठक ने कहा- "आप जो कुछ भी कह रहे है, वह सभी सत्य ही है। पर मैं तो आप सभी की बुद्धि का कौशल्य तभी मानूँगा, जब लक्ष्मीपुर में रहनेवाले धनकर्म के पास से एक दिन का निर्वाह होने जितना भी भोजन लेकर दिखा दो । अन्यथा तो आपके वचन गला फाड़ने के समान ही सिद्ध होंगे।" तब एक मागध ने अपनी कला से गर्वित होते हुए कहा - " अहो ! इसमें क्या दुष्कर है ? मैंने तो अनेक कठोर हृदयवालों को रंजित किया है, तो फिर ये बिचारा तो कितना - मात्र है? इसके पास से अगर भोजन-वस्त्रादि लेकर नहीं बताया, तो स्तुति - पाठकों के द्वारा किये गये दान के विभाग को मैं ग्रहण नहीं करूँगा ।" इस प्रकार शर्त लगाकर धनकर्म के घर गया । अमृत - सिंचित वाणी से धनकर्म से याचना करने लगा - "हे विचक्षण शिरोमणि! देने में क्यों विलम्ब करते हैं? आयु का कोई साक्षी नहीं है अर्थात् आयु का कोई भरोसा नहीं है। आँख की पलक झपकने से पहले ही दीर्घनिद्रा (मौत ) आ जाती है । अतः दान-धर्म में विलम्ब करना अयुक्त है। क्योंकि
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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