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________________ धन्य-चरित्र/181 अनुकूले विधौ देयं यतः पूरयिता प्रभुः। प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्वहरिष्यति।।1।। देहिभ्यो देहि सन्देहिस्थैर्या मा संचिनु श्रियम् । हरन्त्यन्ये वने पश्य भ्रमरीसञ्चिन्तं मधु ।।2।। विशीर्यन्तु कदर्यस्य श्रियः पातालपक्त्रिमा। अगाधमन्धकूपस्य पश्य शैवलितं पयः ।।3।। बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षाद्वारा गृहे-गृहे। दीयतां दीयतां दानमदातुः फलमीदृशम् ।।4।। अर्थात् भाग्य के अनुकूल होने पर दान देना चाहिए, क्योंकि प्रभु उसे फिर से पूर्ण कर देते हैं। भाग्य के प्रतिकूल होने पर भी दान देना चाहिए, क्योंकि सब कुछ जानेवाला तो है ही।।1।। जिस लक्ष्मी की स्थिरता में सन्देह है, ऐसी लक्ष्मी को इस शरीर के लिए संचय करके रखने से क्या? क्योंकि देखो! मधुमक्खी द्वारा संचित शहद वन में से अन्य कोई ग्रहण कर लेता है।।2।। कृपण की पाताल में संचित की गयी लक्ष्मी भी नाश को प्राप्त होती है, जैसे कि अगाध अन्ध-कूप में शैवाल से युक्त पानी को देखो। (जो किसी के काम नहीं आता, अतः दूषित हो जाता हैं।) ।।3।। भिक्षु घर-घर में बोध करते हैं, पर माँगते नहीं है। दान दीजिए-दान दीजिए कहने पर भी दान नहीं पाते-इस प्रकार का फल दान नहीं देने पर प्राप्त होता है।।4।। __ इत्यादि अनेक सुभाषित वचनों, अन्योक्तियों आदि को उस धनकर्म को प्रबोधित करने के लिए पढ़ा, पर उसका मन मुद्ग-शैल पत्थर की तरह थोड़ा भी दया से आर्द्र नहीं हुआ। "मैं दुःखी हूँ, मैं भूखा हूँ, मैं ब्रह्मा हूँ," इत्यादि अनेक प्रकार के अभिनय द्वारा दीन वचन कहे। तब उस धूर्त-सम्राट श्रेष्ठी ने कहा-“हे भद्र मागध! आज अवसर नहीं हैं, अतः आज अगर तुम भोजन की याचना करते हो, कल निश्चित रूप से दूंगा।" धनकर्मा के इस प्रकार कहने पर वह मागध उसके आशय को नहीं पहचानता हुआ प्रसन्न होकर विचार करने लगा-'मेरा आना सफल हुआ। मैं शर्त करके यहाँ आया, तो इसने एक दिन के विलम्ब से ही सही, दान देना तो स्वीकार कर लिया। बिल्कुल 'ना' तो नहीं कहा। अच्छा है! कल ही आकर दान लेकर जाऊँगा। एकान्त रूप से हठ करना याचक-वर्ग के लिए श्रेष्ठ नहीं है।' इस प्रकार विचार करके चला गया। पुनः दूसरा दिन उगने पर वहाँ जाकर उसी प्रकार से फिर से याचना करने लगा। तब धनकर्मा ने कहा-“हे मागध! क्यों आकुल होते हो? धैर्य धारण करो। मैंने तो कहा था कि कल दूंगा।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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